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शरीर बने साधना का साधन

locationभीलवाड़ाPublished: Aug 05, 2021 07:47:01 am

Submitted by:

Suresh Jain

आचार्य ने दी दिनचर्या को व्यवस्थित रखने की प्रेरणा

शरीर बने साधना का साधन

शरीर बने साधना का साधन

भीलवाड़ा।
आचार्य महाश्रमण ने कहा कि हमारा यह शरीर व्याधियों का घर है। न जाने कितने प्रकार के रोग इस शरीर में उत्पन्न हो सकते है। असाता वेदनीय कर्म का योग से एवं व्यक्ति के अप्रमाद के कारण रोग की उत्पत्ति हो सकती है। शरीर में रोग उत्पति के कुछ मुख्य कारण कहे जा सकते है। जैसे-निरंतर बैठे रहना या अति भोजन करना, अहितकर आसन में बैठना या अहितकर भोजन करना, अतिनिद्रा, अति जागरण, उच्चार-प्रस्त्रवण का निरोध करना, अतिविहार, भोजन की प्रतिकूलता और काम विकार इन उपरोक्त सभी कारणों से शरीर में अनेक बीमारियां उत्पन्न होती है। व्यक्ति की दिन चर्या, रात्रि चर्या का संतुलन रहना चाहिए। ऐसा नहीं कि देर रात्रि तक जगना और देर सुबह तक उठना हो। साथ ही जितना हो सके भोजन का संयम होना चाहिए। खाते समय चित्त खाने में रहे। मन में किसी प्रकार आवेग न हो। हित-मित भोजन होना चाहिए। व्यक्ति को प्राणायाम, आसन, योग आदि से शरीर को स्वस्थ रखते हुए इन निमित्तों से बचना चाहिए जिससे शरीर बीमार न हो। शरीर स्वस्थ होगा तो व्यक्ति साधना भी अच्छी कर सकता है।
आचार्य ने आगे कहा कि साधु-संतों के लिए तो यह शरीर साधना का एक साधन है। शरीर स्वस्थ है तब तक कार्य करते रहे। गोचरी, सेवा, व्याख्यान, विहार आदि में शरीर समर्थ है तो शारीरिक स्वास्थ्य के प्रति जागरूक रहना चाहिए। अंत समय में जब लगने लगे शरीर असमर्थ हो गया तो संलेखना की और ध्यान देना चाहिए। शरीर व्यक्ति को छोड़े उससे पहले व्यक्ति को शरीर छोडऩे की तैयारी कर लेनी चाहिए। साधना में जितना शरीर उपयोगी बन सके बनाना चाहिए।
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