उन्होंने कहा कैवल्य ज्ञान प्रकट नही किया जाता बल्कि हो जाता है। उसी प्रकार सफ ल परमात्मा को कैवल्य ज्ञान प्रकट नहीं करना पड़ता बल्कि चार घातिया कर्मों का क्षय होने के साथ ही वह स्वमेव प्रकट हो जाता है। जैन आचार्य ने कहा जिस प्रकार किसी दर्पण में कोई भी वस्तु स्वमेंव नही झलकती बल्कि उसके दिखने वाला पदार्थ अपने आप झलकने लगता है, जबकि दर्पण अपने आप में ही स्थिर है। आचार्य ने कहा जिसका ज्ञान छिपा हुआ है वह क्षदमस्त होता है और जिसका ज्ञान प्रकट हो जाता है वह वीतराग हो जाता है। जैन सिद्वांत में कभी भी किसी क्षदमस्त की वाणी को स्वीकार नहीं किया गया बल्कि वीतराग सर्वज्ञ परमात्मा की वाणी को प्रमाणित माना है। उन्होंने कहा भगवान की जीव को धर्म का उपदेश देने के लिए ऊंकार ध्वनि खिरती है जिसका देशना हर प्राणी मात्र को होती है।
मुनि आदिनाथ का हुआ प्रथम आहार: पंचकल्याण के दौरान मुनि आदिनाथ की जैनेश्वरी दीक्षा उपरांत सर्वतुक बना में घोर साधना के बाद आदिनाथ का प्रथम आहार हुआ। नाटक मंचन के माध्यम से राजा श्रेयांस ने भगवान आदिनाथ का नवधा भक्तिपूर्वक पडग़ाहन कर गन्ने के रस से आहार कराया। आदिनाथ भगवान की विधिनायक प्रतिमा के ब्रह्मचारी सुशील जैन भैया द्वारा आहार के लिए ले जाया गया। भगवान को कैवल्य ज्ञान होने के पश्चात् देवों द्वारा भगवान की दिव्य ध्वनि खिरने के लिए समोशरण की रचना की गई।
उक्त रचना का प्रतिविम्ब रूप नशिया मंदिर प्रांगण में आयोजक प्रज्ञ संघ द्वारा बनवाया गया। आचार्य विशुद्व सागर ने अपने संघ सहित भगवान के गणधर के रूप में विराजमान और समोशरण में विराजमान चतुर निकाय के जीवों को उनको अपनी-अपनी भाषा में सर्वज्ञ परमात्मा की वाणी को पहुंचाया। श्रावकों की शंकाओं का समाधान भी किया।