दो दशक में बदल गया छुटिटयां का स्वरूप पुराने खेल अब नजर ही नहीं आते
एेसा लगता है कि अब हम सब मशीनी युग में सिमट गए हैं। हमें बहुत अच्छी तरह से याद है कि जब छुटिटयां शुरु होती थी तो सारा समय मौज मस्ती में ही निकलता था, पढ़ाई की तो बात होती ही नहीं थी। बच्चे अक्सर चंगा पौ, लंगडी टांग, लुका चुपी, पोसमपार, आंख मिचोली जैसे खेल खेलते थे, घोडा है जो मार खाई खेलते तो लड़कियां भी खूब खेलती थी। लडकियों को खास तौर से गुटखे खेलने का शौक रहता था। गली मौहल्ले में भाग दौड ़वाले खेल खेलते तो पूरा मौहल्ला हिल जाता था। ना दिन का पता चलता था ना रात की खबर होती थी। बस याद रहता तो यही कि अब तो गर्मी की छुटिटयंा चल रही है। सबसे अच्छा लगता था जब आसपास में लेकिन अब सब कुछ बदल गया है खेलकूद अब घर के आंगन तक सिमट गया है। अब छुटिटयों में बच्चे घर में ज्यादा रहते हैं। घर के बाहर जाते हैं तालड़कियां बाहर खेलने निकलती है तो घर वाले तुरंत अंदर बुला लेते हैं, बाहर खेलने जाती है तो हर कदम पर उसका ध्यान रखा जाता है। एेसा लगता ही नहीं है कि छुटिटयां आ गई है। छुटिटयों के लिए होमवर्क मिलता है जिसे पूरा करने में ही समय लग जाता है। बाकी का समय मोबाइल पर खेलने में निकल जाता है, इसके बाद जो समय बचता है वो टीवी पर काटॅून देखने में निकल जाता है। घर में रिश्तेदार आ भी जाए तो बैठने तक का समय नहीं मिलता है। कई बार तो लगता है कि एेसी छुटिटयों का क्या फायदा।