गौरतलब है कि मध्यप्रदेश में तीन लाख से अधिक पेंशनर हैं, जिन्हें सातवें वेतनमान के हिसाब से बढ़ी हुई पेंशन दिया जाना है। चूंकि मध्यप्रदेश से अलग होने के बाद कुछ कानूनी पेंचीदगियां बढ़ गई हैं। राज्य पुनर्गठन अधिनियम के अंतर्गत बंटवारे से पहले पेंशनरों के मामले में कोई फैसला करने से पहले दोनों प्रदेश के बीच सहमति अनिवार्य होना जरूरी है। ऐसी स्थिति में जब कोई फैसला होता है तो दोनों ही प्रदेशों के पेंशनरों का मामला अटक जाता है। इससे पहले, छत्तीसगढ़ के लाखों पेंशनरों ने आंदोलन करके करके सरकार पर जब दबाव बनाया तो 7वें वेतनमान के तहत पेंशन देने का फैसला एक माह में हो गया।
इधर मध्यप्रदेश में छत्तीसगढ़ सरकार के फैसले की तरह कोई हलचल नहीं है। मंत्रालय के स्तर पर भी प्रस्ताव को आगे बढ़ाने की दिशा में कोई कदम नहीं उठाया जा रहा है।
मध्यप्रदेश के पेंशनरों का संगठन जल्द ही बड़ा आंदोलन छेड़ने के मूड में है। एसोसिएशन का आरोप है कि सरकार हम बुजुर्गों की बातों पर ध्यान नहीं दे रही है। क्योंकि हम उग्र आंदोलन नहीं कर सकते हैं, बीमारियों में ही उलझे रहते हैं, घर परिवार की झंझटों से उलझे रहते हैं। ऐसे में सरकार हमें कमजोर मानते हुए हमारे विषय में कोई निर्णय नहीं लेना चाहती है। हमें सरकारी कर्मचारियों से अलग समझा जाता है।
-बजट में पेंशनरों को छोड़ दिया गया। कैबिनेट में जब निर्णय लिया गया, तब भी पेंशनरों को उसमें शामिल नहीं किया।-भारतीय पेंशनर्स महासंघ जल्द ही आंदोलन की रणनीति बना रहा है।
मध्यप्रदेश में बीस साल पहले रिटायर हुए शासकीय कर्मचारियों को फिलहाल पांचवे वेतनमान के हिसाब से पेंशन दी जाती है। राज्य सरकार अब नया प्रस्ताव लाकर इसमें संशोधन करेगा। इससे उन पेंशनरों की पेंशन बढ़ जाएगी।