कलाकृतियों की दुदर्शा लोगों से सुनता रहता हूं। इसी से वहां जाने का मन नहीं करता। कबाड़ को प्रयोग कर जिन कलाकृतियों में जान डाली थी, उन्हें मरते कैसे देख सकता हूं। यह एक शिल्पी के लिए असह्य वेदना की बात है।
नरसिंहपुर की गाडरवारा तहसील के करप गांव निवासी पूर्व आइएएस अफसर पीके चौधरी वर्ष 1989 से 1997 में भोपाल में पदस्थ रहे। तत्कालीन चीफ सेके्रटरी एससी बिहार ने उन्हें सीपीए का ओएडी बना दिया था। वे बताते हैं कि वर्ष 1995 से 1997 के दौरान उन्होंने विभाग में पड़े गेंती, कुदाल, फावड़ा, रिंच, नट, बोल्ट, पाइप और न जाने कितनी इसी तरह की कबाड़ चीजों से चिनार पार्क में कलाकृतियां बनाईं थीं।
ये कलाकृतियां रामायण और महाभारत की पौराणिक कथाओं पर आधारित थीं। स्वतंत्रता संग्राम की झलक भी इस कला क्षेत्र में प्रदर्शित थी। इन्हें देखने इतने लोग आने लगे कि प्रमुख लोगों ने हस्तक्षेप कर इनका निर्माण रुकवा दिया था। आज ये कलाकृतियां बदहाल हैं। कोई सुध नहीं ले रहा। इसके बाद उन्होंने बात का टॉपिक बदल दिया और अपने घर में मौजूद कलाकृतियों के बारे में बात करने लगे।
घर में हैं वेशकीमती कलाकृतियां
विद्या नगर स्थित उनके घर के दरो-दीवार बोलते हैं। कलाकृतियां वर्षों के त्याग और मूल्यों से भरे परिवार की प्रेम कहानी कहती हैं। यह उनकी गत साठ वर्षों की संकलित पूंजी है। सागौन, शीशम आदि वेशकीमती लकडिय़ों पर उनके हाथों से की गई नक्काशी बेजोड़ है। ऐसा लगता है कि ये कलाकृतियां किसी आईएएस अधिकारी ने नहीं, नामचीन शिल्पी ने उकेरी हैं।
उन्हें बचपन से ही कलाकृतियां बनाने का शौक रहा जो नौकरशाह का दायित्व आने पर भी कम नहीं हुआ। उनकी पत्नी इटावा के संभ्रान्त चौधरी ब्राह्मण परिवार से हैं। उनकी नानी के यहां (प्रतापगढ़, उप्र) से आईं राम-सीता की दौ सौ वर्ष से भी पुराने स्वरूप उनके यहां हैं। विशेषता यह है कि उनके घर में तमाम तरह की कलाकृतियों में अनुपयुक्त सामान का ही प्रयोग कर उन्हें सजीव बनाया गया है।
उनके घर में दो गाय, दो बछिया, घर के सदस्यों में शामिल हैं। नर तोते गंगाराम के शांत हो जाने से तोते का जोड़ा बिगड़ गया है। इससे पहले कुत्ते, चीतल, भेड़की, खरगोश आदि इस घर के सदस्य रह चुके हैं। जीवन ऐसा संतुष्ट कि पान खाने का शौक से पूरा नहीं करते। गमलों में ही पान उगाए हुए हैं। रोज दस पत्तों से काम चल जाता है।
यादों को कुरेदते हुए जीतें हैं वर्तमान में बीस साल बीत गए रिटायर हुए। ८० की उम्र छूने जा रहे हैं। वो दिन हवा हुए जब दस मिनट में गाय-भैंस से पसेरी भर दूध की बाल्टी भर लिया करते थे या अकेले ही गाय की गर्दन बगल में चपेट दवा खिला-पिला दिया करते थे। अब तो टीवी के सामने कुर्सी पकड़कर वही कर पाते हैं, जो अभी कर रहे हैं (लेखन)। अच्छा पड़ोसी बनने की कोशिश जरूर कर रहे हैं।
रिटायरमेंट के बाद मकान बनाया तो निर्माण कार्य में लगे औजारों को आज तक सहेजकर रखे हैं। पड़ोसियों को जब भी गेंती-फावड़ा, घन-हथौड़ा-हथौड़ी, सांग-सब्बल, घोड़ी, प्लायर आदि वक्त जरूरत पर देते रहने में संतोष महसूस करते हैं। पड़ोसियों के घर की वजनी सामान की उठा-धरी करवाने के योग्य अब खुद तो नहीं रह गए, लेकिन बेटा और नौकर उन्हें जरूर उपलब्ध रहता है।
बीस वर्षों से सदा दो दुधारू गायें रखकर घर के दूध, दही, घी, मही की व्यवस्था कर रहे हैं। पड़ोसियों के घरों में नाती-पोतों, बीमारों के लिए बचने वाला दूध मुहैया कराते रहते हैं। सुबह-शाम दरबार में आने वाले सुधीजनों का चाय-कॉफी, पान-तंबाकू से स्वागत कर बदले में अपने लेखन के लिए ज्ञानार्जन करते रहते हैं। आज उमड़े हैं, कल मिट जाएंगे, यही अपनी पूजा है, परिक्रमा है, तीर्थाटन है। यूं ही चले चलो, जब तक चली चले।