यानी… आखिर पता लग गया। बहुत शर्मनाक तरीके से। करीब एक सौ अठतीस करोड़ की आबादी वाले देश में कुछ लाख गरीब-मजदूर और बेबस लोग फंस जाएं तो उनमें से बहुतों का कोई धणी-धोरी नहीं है। कोई मजदूर इसलिए पैदल घर के लिए निकल पड़ा, क्योंकि उसके पास पैसे खत्म हो गए थे। कोई परिवार इसलिए चल पड़ा, क्योंकि उनके पास खाने-पीने को कुछ नहीं बचा था। किसी का मोबाइल रिचार्ज खत्म हो गया। वह अपनों को सूचना तक नहीं दे पाया। ऐसे में कई परिवारों को तो पता तक नहीं होगा कि उनके अपने कहां हैं। इनमें से ज्यादातर लोगों का कथन यही सामने आया कि मरना ही है तो यहां क्यों, अपनी मिट्टी पर जाकर मरेंगे।
लॉकडाउन के बीच पटरी से उतरने के कारण मातृभूमि की ओर लौटती जिंदगी का यह हश्र? जो पहुंच गया, उसे तो संतोष हो रहा है कि घर आ गया, मगर जो रास्ते में है उसका फासला और लंबा हो गया है। उन्हें शिविरों में ठहराया गया है मगर सुविधाएं नाममात्र की हैं। मानो वे यहां आकर और अधिक फंस गए हैं। क्या ये हालात सरकारों, नेताओं, अफसरों-कार्मिकों, समाज और जरूरतमंदों की सेवा का दावा करने वाले स्वयंसेवी संगठनों के आत्मावलोकन के लिए पर्याप्त नहीं हैं? हालांकि केन्द्र सरकार और राज्यों की सरकारें प्रयास कर रही हैं लेकिन नाकाफी। स्वयंसेवी संगठन और लोग अपने-अपने स्तर पर भी प्रयासों में जुटे हैं लेकिन जरूरत पूरी नहीं कर पा रहे। मजबूरों तक तो राहत के बजाय सरकारी दावे ही अधिक पहुंच रहे हैं। मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री ने सभी प्रदेशों के मुख्यमंत्रियों को पत्र भेजकर आग्रह किया कि प्रदेशवासियों के खाने-रुकने का इंतजाम वहीं कर दें। जो भी खर्च होगा मध्यप्रदेश उठाएगा। मगर इसका भी कोई असर नहीं हुआ। सभी राज्य केवल ‘अपनों’ को बचाने में जुटे हैं। ‘दूसरे भारतीयों’ को ‘दुत्कार’ रहे हैं। उत्तरप्रदेश की सीमा से तो लगभग डेढ़ सौ महिला-पुरुषों को उनके बच्चों के साथ चंबल नदी में उतारकर हुक्म दे दिया गया कि मध्यप्रदेश से आए हो, वहीं चले जाओ। मजदूर इतने बेबस थे कि घडिय़ालों के खतरों का सामना करते हुए नदी पार करने लगे। भला हो उन लोगों का, जिन्होंने उन्हें दूर से ही रोका और वापस उत्तरप्रदेश भेज दिया।
कुल मिलाकर मजदूरों की जिंदगी मझधार में है। वे जानलेवा हालात में फंसे हैं। अमानवीयता के इन हालात पर पार पाने के लिए सरकार को तत्काल, ठोस और सार्थक कदम उठाने होंगे। सरकारों के पास लम्बा-चौड़ा तन्त्र है। गरीबों-जरूरतमंदों के ‘कल्याण’ के लिए दर्जनों योजनाएं हैं। इन योजनाओं में हजारों-लाखों करोड़ रुपए का प्रावधान है। बजट का क्या होता है और किसके वारे-न्यारे होते हैं, मौजूदा हालात को देखकर पता चल रहा है। इन योजनाओं और उनके बजट का उपयोग करते हुए उस वर्ग को तत्काल उबारने की जरूरत है, जो कोरोना के कारण जानलेवा हालात में फंस गया है। सामने आने वाली अव्यवस्था भांपने में देर भले ही हुई है लेकिन अंधेर के हालात फिलहाल नहीं हैं। अब भी संभल गए तो बहुतों का बहुत कुछ बिगडऩे से बचाया जा सकता है।
(लेखक पत्रिका के राज्य संपादक हैं )
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