सतना आज जातीय राजनीति चरम पर है। 1967 में जब एक गुजराती परिवार की सामान्य महिला कांताबेन पारेख कांग्रेस की टिकट पर चुनाव मैदान में उतरीं तो जनता ने अपना विधायक चुन लिया। उन्होंने इस चुनाव में जनसंंघ के निवृत्तमान विधायक दादा सुखेन्द्र सिंह को हराया था। आज सतना में मुश्किल से करीब 100 गुजराती परिवार हैं। कांताबेन जब चुनाव लड़ी थीं तब गुजरातियों के 100 वोट भी नहीं थे। कांताबेन समाजसेवा से राजनीति में आईं। स्कूल खोले, महिलाओं को शिक्षा के लिए प्रेरित किया। देखते ही देखते वे सतना भर की बहन हो गईं। यह नाम इतना लोकप्रिय हुआ कि उनके अपने बच्चे भी मम्मा की जगह बहन ही कहने लगे।
कांताबेन को राजनीति में लाने वालों में थे शिवानंदजी और डॉ. लालता खरे। सतना तब जनसंंघ का गढ़ था। जनसंंघ के पहले प्रदेशाध्यक्ष राजकिशोर शुक्ल इसी शहर के थे। दादा सुखेंद्र सिंह की तब वही हैसियत थी जो कुशाभाऊ ठाकरे और प्यारेलाल खंडेलवाल की। जनसंंघ के गढ़ को एक ऐसी महिला ने तोड़ दिया था, जिसकी समाजसेवा की अविरल धार में जाति बह गई। कांताबेन ने 1972 में कांग्रेस की टिकट पर एक बार फिर दादा सुखेन्द्र सिंह को भारी मतों से हराया।
अब प्राय: सभी दल अपने उम्मीदवार जातीय वोटों की गणित के हिसाब से उतारते हैं। वोटर की भी वरीयता में आसन्न समस्याओं से ऊपर जातीय भावना सवार रहती है। ऐसे में होमीदाजी और कांताबेन पारेख सरीखे नेता चुनावी लोकतंत्र के सुनहरे दौर का स्मरण कराते हैं।
कांताबेन को राजनीति में लाने वालों में थे शिवानंदजी और डॉ. लालता खरे। सतना तब जनसंंघ का गढ़ था। जनसंंघ के पहले प्रदेशाध्यक्ष राजकिशोर शुक्ल इसी शहर के थे। दादा सुखेंद्र सिंह की तब वही हैसियत थी जो कुशाभाऊ ठाकरे और प्यारेलाल खंडेलवाल की। जनसंंघ के गढ़ को एक ऐसी महिला ने तोड़ दिया था, जिसकी समाजसेवा की अविरल धार में जाति बह गई। कांताबेन ने 1972 में कांग्रेस की टिकट पर एक बार फिर दादा सुखेन्द्र सिंह को भारी मतों से हराया।
अब प्राय: सभी दल अपने उम्मीदवार जातीय वोटों की गणित के हिसाब से उतारते हैं। वोटर की भी वरीयता में आसन्न समस्याओं से ऊपर जातीय भावना सवार रहती है। ऐसे में होमीदाजी और कांताबेन पारेख सरीखे नेता चुनावी लोकतंत्र के सुनहरे दौर का स्मरण कराते हैं।