भोपाल

उस दौर में धर्म और जाति से ऊपर उठकर वोट पड़ते थे

इंदौर के कामरेड होमीदाजी और सतना की कांताबेन पारेख के व्यक्तित्व में जमीन आसमान का फर्क था, लेकिन अद्वितीय समानता भी थी।

भोपालSep 25, 2018 / 11:57 pm

anil chaudhary

mp election 2018

– जयराम शुक्ल, वरिष्ठ पत्रकार
इंदौर के कामरेड होमीदाजी और सतना की कांताबेन पारेख के व्यक्तित्व में जमीन आसमान का फर्क था, लेकिन अद्वितीय समानता भी थी। दोनों अपने-अपने शहर में अति अल्पसंख्यक पारसी और गुजराती परिवारों से से थे। सार्वजनिक जीवन में इतने लोकप्रिय हुए कि जनता ने इन्हें दो-दो बार विधायक चुना। होमीदाजी तो लोकसभा सदस्य भी चुने गए। जाति और संप्रदाय की भावनाओं से भीगी राजनीति में अब चुनने की बात कौन करे। कोई भी दल इस तरह के उम्मीदवारों को टिकट देने के लिए भी लाख बार सोचेगा।
होमीदाजी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की टिकट पर इंदौर पश्चिम से 1957 व 1972 में चुने गए। इस बीच 1962 में वे इंदौर से लोकसभा सीट सांसद बने। कामरेड दाजी पारसी परिवार के हैं। जब उन्होंने पहला चुनाव जीता, तब उनकी विधानसभा में पारसियों के सौ वोट भी नहीं थे।
होमीदाजी का परिवार 1930-35 के आसपास मुंबई से इंदौर आया। दाजी की शिक्षा यहीं हुई। वे स्वतंत्रता संग्राम के आंदोलन में 1942 में जेल गए। 1946 में भाकपा से जुड़े और जीवनपर्यंत इसी में रहे। दाजी छात्र राजनीति से निकलकर श्रमिक आंदोलनों से जुड़े और इंदौर की कपड़ा मिलों के श्रमिकों के नायक हो गए।
होमीदाजी इंदौर जैसे शहर में गरीबों के ऐसे महानायक होकर उभरे कि उनके आगे जाति, धर्म-संप्रदाय की बाधाएं स्वमेव टूट गईं। उन्होंने राजनीति को गरीब और अमीर में बांट दिया। वे गरीब जाति के नायक थे। तरक्की के उच्च पायदान पर बैठे मर्करी की रोशनी में चकाचौंध इंदौर महानगर में क्या अब कल्पना की जा सकती है कि अंगुलियों में गिने जा सकने वाले इंदौर में अब होमीदाजी सरीखा कोई उम्मीदवार चुनाव लड़ और जीत सकता है।

सतना आज जातीय राजनीति चरम पर है। 1967 में जब एक गुजराती परिवार की सामान्य महिला कांताबेन पारेख कांग्रेस की टिकट पर चुनाव मैदान में उतरीं तो जनता ने अपना विधायक चुन लिया। उन्होंने इस चुनाव में जनसंंघ के निवृत्तमान विधायक दादा सुखेन्द्र सिंह को हराया था। आज सतना में मुश्किल से करीब 100 गुजराती परिवार हैं। कांताबेन जब चुनाव लड़ी थीं तब गुजरातियों के 100 वोट भी नहीं थे। कांताबेन समाजसेवा से राजनीति में आईं। स्कूल खोले, महिलाओं को शिक्षा के लिए प्रेरित किया। देखते ही देखते वे सतना भर की बहन हो गईं। यह नाम इतना लोकप्रिय हुआ कि उनके अपने बच्चे भी मम्मा की जगह बहन ही कहने लगे।
कांताबेन को राजनीति में लाने वालों में थे शिवानंदजी और डॉ. लालता खरे। सतना तब जनसंंघ का गढ़ था। जनसंंघ के पहले प्रदेशाध्यक्ष राजकिशोर शुक्ल इसी शहर के थे। दादा सुखेंद्र सिंह की तब वही हैसियत थी जो कुशाभाऊ ठाकरे और प्यारेलाल खंडेलवाल की। जनसंंघ के गढ़ को एक ऐसी महिला ने तोड़ दिया था, जिसकी समाजसेवा की अविरल धार में जाति बह गई। कांताबेन ने 1972 में कांग्रेस की टिकट पर एक बार फिर दादा सुखेन्द्र सिंह को भारी मतों से हराया।
अब प्राय: सभी दल अपने उम्मीदवार जातीय वोटों की गणित के हिसाब से उतारते हैं। वोटर की भी वरीयता में आसन्न समस्याओं से ऊपर जातीय भावना सवार रहती है। ऐसे में होमीदाजी और कांताबेन पारेख सरीखे नेता चुनावी लोकतंत्र के सुनहरे दौर का स्मरण कराते हैं।
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