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सुरक्षा गृहों में शोषित बच्चे, नहीं होता संस्थाओं का ऑडिट

locationभोपालPublished: Jan 16, 2020 09:34:37 pm

Submitted by:

anil chaudhary

– पिछले कई मामलों में सामने आया कि सोशल ऑडिट पर किसी का ध्यान नहीं है

child harassment

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अनिल चौधरी, भोपाल. किशोर न्याय अधिनियम के तहत संचालित बाल संरक्षण गृहों में भी बच्चे सुरक्षित नहीं हैं। पिछले कुछ वर्षों में सामने आई भयावह खबरें इस बात को पुख्ता करती हैं। मध्यप्रदेश की बात करें तो यहां जनवरी 2018 से जनवरी 2019 के बीच बच्चों के संरक्षण और सुरक्षा के लिए संचालित सात संस्थानों में बच्चों के शोषण, बलात्कार और हिंसा के मामले सामने आ चुके हैं। रतलाम जिले के जावरा में कुंदन कुटीर बालिका गृह में बच्चियों के साथ हिंसा और यौन उत्पीडऩ हुआ है।
भोपाल के अवधपुरी और बैरागढ़ क्षेत्र में मूक-बधिरों के छात्रावास में बालिकाओं के यौन शोषण के मामले ने सभी को झकझोरकर रख दिया। रतलाम वाले मामले में बाल कल्याण समिति की अध्यक्ष की भी भूमिका थी। ये चंद उदाहरण बाल शोषण की तस्वीर याद दिलाने के लिए हैं, वरना मामले तो हजारों हैं। रतलाम में 30 लड़कियां रहती थीं। इसके पहले शिवपुरी में शकुंतला परमार्थ समिति की संचालक के शिक्षित पिता संस्था द्वारा संचालित अनाथ आश्रम में रहने वाली बच्चियों का शोषण करते थे। वहीं, भोपाल वाले मामले में हॉस्टल वार्डन की भूमिका थी। अवधपुरी के मामले में तो हॉस्टल संचालक ही मुंह काला किया करता था। वर्ष 2001 से 2016 के बीच बच्चों के लैंगिक शोषण और बलात्कार के प्रकरणों की संख्या 2113 से बढ़कर 36022 हो गई। यानी 1705 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई।
देशभर में 7189 बाल संरक्षण संस्थान/गृह हैं। इनमें से करीब 5850 ही पंजीकृत हैं। इन संस्थानों में 232936 बच्चे रहते हैं। उच्चतम न्यायालय में दाखिल एक अध्ययन रिपोर्ट के मुताबिक 2874 बाल गृहों में से केवल 54 को ही सकारात्मक अंक मिले हैं। रिपोर्ट में जिन 185 गृहों का ऑडिट किया गया, उनमें से केवल 19 में ही वहां रहने वाले बच्चों से सम्बंधित जानकारियां और रिकॉर्ड उपलब्ध था।
वर्ष 2018-19 में भारत के सरकार ने समेकित बाल विकास योजना (आईसीपीएस) के लिए 775 करोड़ रुपए का आवंटन किया था। इस बजट में शिक्षण, प्रशिक्षण, निगरानी, प्रचार, जागरूकता, अध्ययन, यात्रा, वेतन आदि शामिल है। यदि यह पूरा बजट सभी 232936 बच्चों के लिए खर्च किया जाता, जो बाल गृहों में रह रहे हैं, तब एक बच्चे के लिए 85 रुपए प्रतिदिन का बजट मिलता।


वर्ष 2019-20 के अंतरिम बजट में भारत का कुल बजट 27.84 लाख करोड़ रुपए है। इसमें से बच्चों के लिए 90594.25 करोड़ रुपए दिए गए हैं। इस वक्त भारत में बच्चों की संख्या 54 करोड़ के मान से एक बच्चे की शिक्षा, स्वस्थ्य, सुरक्षा, विकास, सहभागिता के लिए 1677 रुपए वार्षिक यानी 4.60 रुपए प्रतिदिन के बराबर बजट का आवंटन किया है। यह महज नीतिगत अपराध नहीं, राज्य व्यवस्था की अनैतिकता का परिचायक है।
आलम ये है कि आदिवासी छात्रावासों में रहने वाले बच्चों को ओढऩे के लिए फटा कम्बल मिलता है। बालिका गृह और संरक्षण गृहों में बच्चियों को आंतरिक वस्त्र और सेनेटरी नैपकिन नहीं मिलते हैं। बाल संरक्षण गृहों, विकलांग छात्रावास और ऐसे संस्थानों में दीवारें सीलन से भरी और शौचालय बिना सफाई के होते हैं। क्योंकि एक बच्चे के लिए करीब 2000 रुपए का आवंटन होता है, जिसमें से संभवत: 1000 रुपए सेवादारों के खाते में चले जाते हैं। बाल संरक्षण गृहों और अनाथ आश्रम से संचालन के तरीकों से ही समाज और सरकार उन्हें यह अहसास करवाती है कि वे वंचित हैं, उनके कोई अधिकार नहीं हैं, उनकी उपयोगिता उनकी शोषण में है। वस्तुत: समाज और सरकार दोनों मिलकर वंचित बच्चों का दोहरा शोषण करते हैं और जीवन के हर पल में उन बच्चों के गरिमा, शोषण से मुक्ति, स्वतंत्रता और जीवन जीने के अधिकार का हनन किया जाता है।
उच्चतम न्यायालय और किशोर न्याय अधिनियम दोनों का कहना है कि बच्चों के संरक्षण के लिए बनाए गए हर गृह का वैधानिक पंजीयन होना चाहिए और हर संस्थान को व्यवस्थागत निगरानी के दायरे में रखा जाना चाहिए। इसके बावजूद मध्यप्रदेश में संचालित अनाथ आश्रम, धार्मिक समूहों द्वारा संचालित होने वाले ऐसे छात्रावास, जहां गरीब बच्चे या अनाथ बच्चे रहते हैं, सरीखे संस्थान वैधानिक व्यवस्था की निगरानी में कम ही हैं।
जब-जब मामले खुले तब-तब पीडि़त बच्चों ने बताया कि प्रतिकार करने पर उन्हें शारीरिक प्रताडऩा दी जाती थी। उन्हें डंडों से मारा जाता था। अगर सरकार सच में इन संस्थानों के सामाजिक अंकेक्षण की व्यवस्था को ईमानदारी से लागू करती, तो शोषण का सच समय रहते ही सामने आ जाता। इसलिए इनका समय-समय पर ऑडिट कराना जरूरी है। इतना ही नहीं, बच्चों से मनौवैज्ञानिक संवाद के लिए भी कोई स्थान नहीं है। बच्चों के मन में क्या घट रहा है? बच्चे भयाक्रांत कर देने वाले वातावरण में कैसे जीवन बिता रहे हैं? उनके मन और शरीर पर किस तरह से घाव दिए जा रहे हैं, इससे संबंधित सहभागी और विशेषज्ञ जांच की कोई पहल हमारी सरकार नहीं करती है। यह सवाल भी नहीं उठा अब तक कि हर गृह में बाल मनौविज्ञान को जानने वाला परामर्शदाता होना चाहिए, वह कहाँ है? यदि है, तो उसने अपनी भूमिका निभाते हुए क्या पाया?
दरअसल, हमारे राजनीतिक दल हर उस पद और संस्थान में काबिज होना चाहते हैं, जिनके पास कुछ अधिकार हैं। बाल कल्याण समिति का अध्यक्ष और इसके सदस्यों को यह अधिकार है कि वे पुलिस से सीधे बात करके उन्हें निर्देश दे सकते हैं। उन्हें मजिस्ट्रेट के अधिकार होते हैं। नेताओं को यह अधिकारिता ललचाती है। वे अपने प्रभाव का उपयोग करके बाल कल्याण समिति में पदासीन हो जाते हैं। उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि किशोर न्याय अधिनियम के तहत यह एक संवेदनशील संस्था और भूमिका है? एक अध्ययन के मुताबिक मध्यप्रदेश के 17 जिलों की समितियों में वकालत कर रहे वकील काबिज हैं। जबकि नियमानुसार वे समिति में नहीं हो सकते है। संस्था चलाने वाले, राजनीतिक दलों के कार्यकर्ता और कम शिक्षा प्राप्त व्यक्ति इन पदों पर हैं, जो नहीं हो सकते हैं। यही बात राज्य बाल अधिकार संरक्षण आयोग और बाल संरक्षण समितियों की गठन और तौर तरीकों पर भी लागू होती है।

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