वर्ष 2019-20 के अंतरिम बजट में भारत का कुल बजट 27.84 लाख करोड़ रुपए है। इसमें से बच्चों के लिए 90594.25 करोड़ रुपए दिए गए हैं। इस वक्त भारत में बच्चों की संख्या 54 करोड़ के मान से एक बच्चे की शिक्षा, स्वस्थ्य, सुरक्षा, विकास, सहभागिता के लिए 1677 रुपए वार्षिक यानी 4.60 रुपए प्रतिदिन के बराबर बजट का आवंटन किया है। यह महज नीतिगत अपराध नहीं, राज्य व्यवस्था की अनैतिकता का परिचायक है।
आलम ये है कि आदिवासी छात्रावासों में रहने वाले बच्चों को ओढऩे के लिए फटा कम्बल मिलता है। बालिका गृह और संरक्षण गृहों में बच्चियों को आंतरिक वस्त्र और सेनेटरी नैपकिन नहीं मिलते हैं। बाल संरक्षण गृहों, विकलांग छात्रावास और ऐसे संस्थानों में दीवारें सीलन से भरी और शौचालय बिना सफाई के होते हैं। क्योंकि एक बच्चे के लिए करीब 2000 रुपए का आवंटन होता है, जिसमें से संभवत: 1000 रुपए सेवादारों के खाते में चले जाते हैं। बाल संरक्षण गृहों और अनाथ आश्रम से संचालन के तरीकों से ही समाज और सरकार उन्हें यह अहसास करवाती है कि वे वंचित हैं, उनके कोई अधिकार नहीं हैं, उनकी उपयोगिता उनकी शोषण में है। वस्तुत: समाज और सरकार दोनों मिलकर वंचित बच्चों का दोहरा शोषण करते हैं और जीवन के हर पल में उन बच्चों के गरिमा, शोषण से मुक्ति, स्वतंत्रता और जीवन जीने के अधिकार का हनन किया जाता है।
उच्चतम न्यायालय और किशोर न्याय अधिनियम दोनों का कहना है कि बच्चों के संरक्षण के लिए बनाए गए हर गृह का वैधानिक पंजीयन होना चाहिए और हर संस्थान को व्यवस्थागत निगरानी के दायरे में रखा जाना चाहिए। इसके बावजूद मध्यप्रदेश में संचालित अनाथ आश्रम, धार्मिक समूहों द्वारा संचालित होने वाले ऐसे छात्रावास, जहां गरीब बच्चे या अनाथ बच्चे रहते हैं, सरीखे संस्थान वैधानिक व्यवस्था की निगरानी में कम ही हैं।
जब-जब मामले खुले तब-तब पीडि़त बच्चों ने बताया कि प्रतिकार करने पर उन्हें शारीरिक प्रताडऩा दी जाती थी। उन्हें डंडों से मारा जाता था। अगर सरकार सच में इन संस्थानों के सामाजिक अंकेक्षण की व्यवस्था को ईमानदारी से लागू करती, तो शोषण का सच समय रहते ही सामने आ जाता। इसलिए इनका समय-समय पर ऑडिट कराना जरूरी है। इतना ही नहीं, बच्चों से मनौवैज्ञानिक संवाद के लिए भी कोई स्थान नहीं है। बच्चों के मन में क्या घट रहा है? बच्चे भयाक्रांत कर देने वाले वातावरण में कैसे जीवन बिता रहे हैं? उनके मन और शरीर पर किस तरह से घाव दिए जा रहे हैं, इससे संबंधित सहभागी और विशेषज्ञ जांच की कोई पहल हमारी सरकार नहीं करती है। यह सवाल भी नहीं उठा अब तक कि हर गृह में बाल मनौविज्ञान को जानने वाला परामर्शदाता होना चाहिए, वह कहाँ है? यदि है, तो उसने अपनी भूमिका निभाते हुए क्या पाया?
दरअसल, हमारे राजनीतिक दल हर उस पद और संस्थान में काबिज होना चाहते हैं, जिनके पास कुछ अधिकार हैं। बाल कल्याण समिति का अध्यक्ष और इसके सदस्यों को यह अधिकार है कि वे पुलिस से सीधे बात करके उन्हें निर्देश दे सकते हैं। उन्हें मजिस्ट्रेट के अधिकार होते हैं। नेताओं को यह अधिकारिता ललचाती है। वे अपने प्रभाव का उपयोग करके बाल कल्याण समिति में पदासीन हो जाते हैं। उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि किशोर न्याय अधिनियम के तहत यह एक संवेदनशील संस्था और भूमिका है? एक अध्ययन के मुताबिक मध्यप्रदेश के 17 जिलों की समितियों में वकालत कर रहे वकील काबिज हैं। जबकि नियमानुसार वे समिति में नहीं हो सकते है। संस्था चलाने वाले, राजनीतिक दलों के कार्यकर्ता और कम शिक्षा प्राप्त व्यक्ति इन पदों पर हैं, जो नहीं हो सकते हैं। यही बात राज्य बाल अधिकार संरक्षण आयोग और बाल संरक्षण समितियों की गठन और तौर तरीकों पर भी लागू होती है।