प्रदेश सरकार बनाने का श्रेय प्रदेश अध्यक्ष के नाते कमलनाथ को मिला था, तो लोकसभा चुनाव में 29 में से 28 सीटें हारने की जिम्मेदारी और जवाबदेही भी उनके कंधों पर आएगी। इधर भाजपा नेताओं के हौसले बुलंद हैं। एग्जिट पोल से ही हॉर्स ट्रेडिंग और सरकार बनाने-गिराने की खबरों से सियासत गरमा गई है। भाजपा की कोशिश भी होगी कि प्रदेश में दोबारा उसकी सरकार काबिज हो। संख्या गणित के हिसाब से कांग्रेस और भाजपा में महज पांच विधायकों का ही अंतर है।
कमलनाथ को सरकार की मजबूती के लिए मंत्रिमंडल विस्तार आवश्यक हो गया है। उन्हें कैबिनेट में निर्दलीय विधायकों को भी अब जगह देनी होगी। खेमों में बंटी कांग्रेस में दिग्विजय सिंह, ज्योतिरादित्य ङ्क्षसधिया, अरुण यादव, अजय सिंह और
कांतिलाल भूरिया जैसे बड़े नेताओं की भूमिका पर भी नजर रहेगी। विधानसभा चुनाव में टिकट बंटवारे से लेकर मुख्यमंत्री चयन तक में नेताओं के मतभेद खुलकर सामने आए थे। कांग्रेस के अंदरुनी जानकार कहते हैं कि राहुल गांधी के दरबार में अंतरविरोध के मामले पहुंचने का सिलसिला शुरू होने वाला है।
सिंधिया परिवार की तीसरी, ज्योतिरादित्य की पहली हार
सिंधिया परिवार में माधवराव और यशोधरा राजे अपराजेय रहे हैं। विजयाराजे सिंधिया 1980 में इंदिरा गांधी के खिलाफ रायबरेली से चुनाव हारी थीं, लेकिन यह हार उनकी मध्यप्रदेश के बाहर थी। उनकी बेटी वसुंधरा राजे 1984 के चुनाव में भिंड लोकसभा क्षेत्र से चुनाव हारी थीं।
अब ज्योतिरादित्य सिंधिया अपने गढ़ गुना में हारे हैं। विजयाराजे 1980 में इंदिरा गांधी के खिलाफ रायबरेली से लोकसभा चुनाव लड़ी थीं। विजयाराजे हार गईं, लेकिन जनता पार्टी जीती तो उनको पद का ऑफर किया गया, लेकिन उन्होंने स्वीकार नहीं किया।
विजयाराजे की पुत्री वसुंधरा 1984 में भाजपा से भिंड लोकसभा सीट से चुनाव लड़ीं। उन्हें दतिया परिवार के किशन जूदेव ने हराया था। माधवराव के निधन के बाद ज्योतिरादित्य को 2002 में गुना से उपचुनाव में उतरना पड़ा था। वे जीते। इसके बाद 2004, 2009 और 2014 में लगातार जीत हासिल की। अब हारे भी तो अपने ही पुराने समर्थक रहे केपी यादव के हाथों। केपी विधानसभा उपचुनाव हारे थे।