
आजाद के छुए-अनछुए पहलुओं को किया जीवंत
नाटक में बंदूक की गोली से क्रांति का सपना देखने वाले चंद्रशेखर आजाद का जिक्र होता है। वे महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन से प्रभावित होकर संस्कृत विद्यापीठ, काशी में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ धरना-प्रदर्शन करते समय पकड़े जाते है। उन्हें अदालत में पंद्रह कोड़ों की सजा दी जाती है। इस घटना के बाद उनके आंदोलन में गतिशीलता बढ़ती जाती है, वह राम प्रसाद बिस्मिल,असफाक उल्ला खां, राजेन्द्र सिंह लहरी व रोशन सिंह आदि के साथ मिलकर अंग्रेजी हथियार और खजाने को लूटने की रणनीति बनाते है। इसी बीच क्रांतिकारी पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी, भगत सिंह की आजाद जी से भेंट कराते है दर्शाया गया है। अंतिम अंतिम दृश्य में आजाद जी अपने मित्र सुखदेव राज के साथ वार्ता कर रहे थे तभी मुखबिर की सूचना पर उन्हें अंग्रेजी सिपाही चारों तरफ से घेर लेते हैं । अंत में दिखाया गया कि मुखबिर की सूचना पर उन्हें अंग्रेजी सिपाही चारों तरफ से घेर लेते हैं। वह मन के ही संकल्प लेते है कि अंग्रेजों की गोलियों से नहीं मरेंगे, इसके बाद वह मिट्टी को मुठ्ठी में लेकर माथे से लगाते है और कहते हैं आजाद था, आजाद हूं और आजाद ही रहूंगा...। अंत में अपनी पिस्तौल से अपने प्राणों की आहुति दे देते हैं। नाट्य प्रस्तुति से पहले कला के क्षेत्र में उत्कृष्ट कार्य करने वाली महिला कलाकारों को सम्मानित किया गया। इसमें अहिल्या बाई होलकर पुरस्कार सुहास प्रधान, राजमाता सिंधिया सम्मान रीना सिन्हा, सावित्रीबाई फुले सम्मान अपूर्वा मुक्तिबोध भावे को दिया गया। छह स्वयंसिद्धा सम्मान ज्योती सावरीकर, राखी जोशी, लता सिंह मुंशी, कला मोहन अर्चना कुमार और रंजना तिवारी को प्रदान किए गए।