भोपाल

लोकसभा का रण : राजनीतिक आकाओं पर शह-मात के खेल में जीत का जिम्मा

चुनाव में चेहरों ने मोहरों के लिए बिछाई सियासी बिसात, मप्र में 04चरण में होंगे लोकसभा चुनाव…

भोपालApr 16, 2019 / 05:45 am

anil chaudhary

madhyapradesh-mahamukabla-2019

भोपाल जितेन्द्र चौरसिया की रिपोर्ट…
लोकसभा के चुनावी रण में कुछ सीटों पर बड़े चेहरों ने मोहरों पर दांव लगवाया है। सियासी दलों ने भी इन पर भरोसा किया है। ये मोहरे चुनाव लड़ रहे हैं, लेकिन उनके पीछे पूरी बिसात राजनीतिक आका की है।
चुनावी शंतरज पर प्रत्याशी की अहमियत महज मोहरे भर की है। न तो उनकी जीत पूरी तरह उनकी होगी और न ही हार। उनकी जीत-हार का तमगा भी चेहरों के खाते में शामिल होगा।

– मोना सुस्तानी
कांग्रेस की राजगढ़ प्रत्याशी मोना सुस्तानी के टिकट के पीछे पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह की भूमिका है। मोना को दिग्विजय खेमे का माना जाता है।

राजगढ़ दिग्विजय की सीट रही है, लेकिन इस बार वे भोपाल से चुनाव लड़ रहे हैं। तमाम विरोधों को दरकिनार करके दिग्विजय ने मोना का नाम आगे बढ़ाया था।
आलाकमान ने भी भरोसा जताकर उनको टिकट दिया, लेकिन जीत की जिम्मेदारी दिग्विजय को ही दी है। इसी कारण दिग्विजय भोपाल के साथ राजगढ़ सीट के लिए भी सक्रिय हैं।

 


– राजाराम त्रिपाठी
कांग्रेस ने सतना में भाजपा सांसद गणेश सिंह के सामने राजाराम त्रिपाठी को टिकट दिया है। राजाराम के टिकट के लिए पूर्व विधानसभा उपाध्यक्ष राजेंद्र सिंह की दावेदारी को दरकिनार किया गया। राजाराम का नाम पूर्व नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह ने आगे बढ़ाया था।
दरअसल, सतना-सीधी की पूरी सियासत अजय सिंह, राजेंद्र सिंह और पूर्व मंत्री इंद्रजीत पटेल के दांव-पेंच पर टिकी होती है। इंद्रजीत का निधन के बाद से अजय और राजेंद्र के बीच अंदरूनी शह-मात के हालात हैं।
इस बार राजेंद्र का टिकट पक्का माना जा रहा था, लेकिन ऐन मौके पर उनका नाम अटक गया। सीधी से चुनाव लड़ रहे अजय ने सतना में भी अपना कार्ड खेला है।

 
– कविता सिंह
खजुराहो कांग्रेस प्रत्याशी कविता सिंह विधायक विक्रम सिंह नातीराजा की पत्नी हैं। यहां पूर्व मंत्री राजा पटैरिया सहित आधा दर्जन दावेदार थे, लेकिन कविता को टिकट दिलाने में नातीराजा कामयाब रहे।

यहां चेहरा कविता का है, लेकिन चुनाव प्रबंधन नातीराजा के हवाले है। नातीराजा के साथ दिग्विजय और ज्योतिरादित्य सिंधिया की सहमति भी है। मुख्य रूप से दिग्विजय ही नातीराजा के कांग्रेस में आने का कारण थे, लेकिन रसूख के कारण सिंधिया भी कई मौकों पर उन्हें सपोर्ट करते हैं। ऐसे में कविता महज मोहरा भर है।
 


– देवाशीष जरारिया
भिंड सीट पर कांग्रेस के देवाशीष जरारिया का टिकट बेहद रस्साकसी के बाद फाइनल हुआ है। बसपा से कांग्रेस में आए देवाशीष को लेकर सबसे ज्यादा आपत्ति सांसद ज्योतिरादित्य सिंधिया को थी, लेकिन मुख्यमंत्री कमलनाथ और दिग्विजय इस नाम पर एकराय थे।
दिग्विजय ही विधानसभा चुनाव के पहले देवाशीष को कांग्रेस में लाए हैं। पहले देवाशीष को विधानसभा चुनाव लड़ाया जाना था, लेकिन समीकरण नहीं बन पाए। इस बार मंत्री गोविंद सिंह ने भी देवाशीष का नाम आगे बढ़ाया। गोविंद का इलाका होने के कारण यहां उनकी रजामंदी ज्यादा मायने रखती थी।
 


– जीएस डामोर
रतलाम सीट पर दिग्गज कांग्रेस सांसद कांतिलाल भूरिया के सामने उतरने वाले भाजपा प्रत्याशी जीएस डामोर पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के करीबी रहे हैं।

डामोर जल संसाधन विभाग के पूर्व ईएनसी हैं। उनकी राजनीति में एंट्री के पीछे शिवराज ने कराई थी। डामोर ने झाबुआ सीट पर कांतिलाल के बेटे विक्रांत को विधानसभा चुनाव में हराया है। डामोर एक मात्र विधायक हैं जो लोकसभा चुनाव में उतरे हैं।
2015 के उपचुनाव में रतलाम-झाबुआ सीट पर कांतिलाल के सामने भाजपा ने निर्मला भूरिया को उतारा था। इस बार भी उनका नाम प्रमुख दावेदार के तौर पर था, लेकिन शिवराज सिंह चौहान की रजामंदी डामोर पर थी।

– भाजपा : संघ की बिसात और मोहरे ज्यादा
भाजपा में टिकटों के पीछे संघ का असर ज्यादा है। ज्यादातर दिग्गज चेहरे फाइनल किए गए या फिर संघ की रिपोर्ट व सिफारिश पर टिकट दिए गए। संघ ने 2003 के बाद अब चुनाव में ज्यादा सक्रियता दिखाना शुरू किया है।
 

खास तौर पर भोपाल से दिग्विजय के कांग्रेस प्रत्याशी बनने के बाद से भोपाल सहित दूसरी सीटों पर संघ की सक्रियता बढ़ी है। इसी कारण चुनावी बिसात पर संघ के मोहरे ज्यादा हैं।
इनमें महेन्द्र सिंह सोलंकी, संध्या राय, वीडी शर्मा, दुर्गादास उइके, अनिल फिरोजिया सहित आधा दर्जन मोहरे शामिल हैं। इनमें मौजूदा सांसद को दोबारा मौका देना भी शामिल हैं।

 

हर नेता को किसी न किसी का सहयोग मिलता है, लेकिन टिकट पात्रता व मापदंड के आधार पर मिलता है। यह नहीं कहा जा सकता कि कुछ लोग केवल चेहराभर होते हैं।
– चंद्रप्रभाष शेखर, संगठन प्रभारी, प्रदेश कांग्रेस
 

भाजपा में प्रत्याशी नेता के नहीं, पार्टी के होते हैं। नेता और गुट की परंपरा कांग्रेस की है। भाजपा निर्धारित मापदंडों के आधार पर ही टिकट देती है। पार्टी एकजुट होकर चुनाव लड़ती है।
– राकेश सिंह, अध्यक्ष, प्रदेश भाजपा

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