भोपाल शहर में कैथोलिक ईसाई समुदाय का यह पहला चर्च है। करीब 150 वर्ष पुराना यह चर्च आज भी अपनी ऐतिहासिक गौरव गाथा को बयां करता है। जितना अद्भुत यह चर्च है, इसका इतिहास भी उतना ही अनूठा है।
इसे भोपाल के जहांगीराबाद में जिंसी चौराहे के पास स्थित सेंट फ्रांसिस असिसि कैथेड्रल चर्च नाम से जाना जाता है। 1875 (144) वर्ष में बने इस चर्च को शहर के सबसे पुराने चर्च का दर्जा प्राप्त है।
क्रिसमस के दौरान इस चर्च को शानदार तरीके से सजाया जाता हैं। वहीं इस दौरान प्रार्थना सभी भी आयोजित की जाती है। जहांगीराबाद में जिंसी चौराहे के पास स्थित सेंट फ्रांसिस असिसि कैथेड्रल चर्च का बड़ा सा प्रवेश द्वार प्रभु यीशु के जीवन की झलकियां दिखाता है।
अगर आप अध्यात्म पसंद व्यक्तित्व के हैं, तो आपको यहां एक सुकून की अनुभूति होगी। कुछ ऐसी ही आभा है सेंट फ्रांसिस असिसि कैथेड्रल चर्च की।
अगर आप अध्यात्म पसंद व्यक्तित्व के हैं, तो आपको यहां एक सुकून की अनुभूति होगी। कुछ ऐसी ही आभा है सेंट फ्रांसिस असिसि कैथेड्रल चर्च की।
चर्च का निर्माण Church building : सिकंदर जहां बेगम ने दी थी जमीन…
कहते हैं कि नवाब शासन काल के दौरान इसे बनाया गया था। कहा तो ये भी जाता है कि बोरबोन परिवार से इस चर्च का पुराना नाता है। बोरबोन परिवार के पूर्वज मूल रूप से फ्रांस के निवासी थे।
कहते हैं कि नवाब शासन काल के दौरान इसे बनाया गया था। कहा तो ये भी जाता है कि बोरबोन परिवार से इस चर्च का पुराना नाता है। बोरबोन परिवार के पूर्वज मूल रूप से फ्रांस के निवासी थे।
इस चर्च को बनाने की अनुमति रियासत भोपाल की 8वीं शासिका सिकंदर जहां बेगम द्वारा दी गई थी। राजकुमारी इसाबेला ने 4 अक्टूबर 1873 को चर्च बनाने का काम शुरू करवाया था। इसके लिए उन्होंने जमीन दान में दी थी। पहले 10 बीघा जमीन में से 3 बीघा और उसके बाद 7 बिश्वा में से 1 बिश्वा हिस्सा दिया था।
नवाब शासन काल के दौरान बने इस चर्च का बोरबोन परिवार से पुराना नाता है। इस परिवार के पूर्वज मूल रूप से फ्रांस के निवासी थे। भोपाल नवाब नजीर उल्हा मोहम्मद खान के दरबार में शाहजाद मसीह प्रधानमंत्री थे।
शाहजाद का असली नाम बाल्थाजार बोरबोन है। इनकी पत्नी का नाम इसाबेला एलिजाबेथ बोरबोन था। इन्हें दुल्हन साहिबा के नाम से भी जाना जाता है।
शाहजाद का असली नाम बाल्थाजार बोरबोन है। इनकी पत्नी का नाम इसाबेला एलिजाबेथ बोरबोन था। इन्हें दुल्हन साहिबा के नाम से भी जाना जाता है।
1875 में यह बनकर तैयार हो पाया था। 24 अक्टूबर 1875 को आगरा के विकार ऐपेस्टोलिक, डॉ. पॉल जोसी ओएफएम, फादर रफेल, फादर नोबर्ट, तत्कालीन बेगम और बोरबोन परिवार के सदस्यों की उपस्थिति में चर्च का उद्घाटन हुआ था।
अफसर भी आते थे प्रार्थना करने…
कहा जाता है कि नवाब काल में ब्रिटिश सैन्य छावनी सीहोर में थी। ऐसे में वहां के कई अफसर भी इस चर्च में प्रार्थना करने आते थे। चर्च की इमारत के अंदर ऑल्टर के ठीक सामने राजकुमारी इसाबेला की कब्र है।
इसके अलावा बोरबोन परिवार के कुछ और सदस्यों की कब्र भी यहां पर मौजूद है। इस परिवार के उत्तराधिकारी आज भी जहांगीराबाद में निवासरत हैं। 1963 में चर्च का जीर्णोद्धार किया गया। इसके बाद इसे कैथेड्रल? (महाचर्च) का दर्जा दिया गया।
कहा जाता है कि नवाब काल में ब्रिटिश सैन्य छावनी सीहोर में थी। ऐसे में वहां के कई अफसर भी इस चर्च में प्रार्थना करने आते थे। चर्च की इमारत के अंदर ऑल्टर के ठीक सामने राजकुमारी इसाबेला की कब्र है।
इसके अलावा बोरबोन परिवार के कुछ और सदस्यों की कब्र भी यहां पर मौजूद है। इस परिवार के उत्तराधिकारी आज भी जहांगीराबाद में निवासरत हैं। 1963 में चर्च का जीर्णोद्धार किया गया। इसके बाद इसे कैथेड्रल? (महाचर्च) का दर्जा दिया गया।
25 को ही क्रिसमस क्यों?
क्रिसमस का आरंभ करीबन चौथी सदी में हुआ था। इससे पहले प्रभु यीशु के अनुयायी उनके जन्म दिवस को त्योहार के रूप में नहीं मनाते थे। यीशु के पैदा होने और मरने के सैकड़ों साल बाद जाकर कहीं लोगों ने 25 दिसम्बर को उनका जन्मदिन मनाना शुरू किया।
क्रिसमस का आरंभ करीबन चौथी सदी में हुआ था। इससे पहले प्रभु यीशु के अनुयायी उनके जन्म दिवस को त्योहार के रूप में नहीं मनाते थे। यीशु के पैदा होने और मरने के सैकड़ों साल बाद जाकर कहीं लोगों ने 25 दिसम्बर को उनका जन्मदिन मनाना शुरू किया।
मगर इस तारीख को यीशु का जन्म नहीं हुआ था क्यूंकि सबूत दिखाते हैं कि वह अक्टूबर में पैदा हुए थे, दिसम्बर में नहीं। ईसाई होने का दावा करने वाले कुछ लोगों ने बाद में जाकर इस दिन को चुना था क्योंकि इस दिन रोम के गैर ईसाई लोग अजेय सूर्य का जन्मदिन मनाते थे और ईसाई चाहते थे की यीशु का जन्मदिन भी इसी दिन मनाया जाए।
(द न्यू इनसाइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका) सर्दियों के मौसम में जब सूरज की गर्मी कम हो जाती है तो गैर ईसाई इस इरादे से पूजा पाठ करते और रीति- रस्म मनाते थे कि सूरज अपनी लम्बी यात्रा से लौट आए और दोबारा उन्हें गरमी और रोशनी दे। उनका मानना था कि दिसम्बर 25 को सूरज लौटना शुरू करता है। इस त्योहार और इसकी रस्मों को ईसाई धर्म गुरुओं ने अपने धर्म से मिला लिया औऱ इसे ईसाइयों का त्योहार नाम दिया यानि (क्रिसमस-डे)। ताकि गैर ईसाईयों को अपने धर्म की तरफ खींच सके।
क्रिसमस से जुड़ी कुछ खास परंपराएं Some special traditions related to Christmas …
साल के आखिर में आने वाला खुशियों का त्यौहार क्रिसमस जिसे हम बड़ा दिन भी कहते हैं। इस दिन को ईसा मसीह के जन्मदिन के रूप में मनाया जाता है। इसमें कुछ चीजें बहुत खास होती हैं।
साल के आखिर में आने वाला खुशियों का त्यौहार क्रिसमस जिसे हम बड़ा दिन भी कहते हैं। इस दिन को ईसा मसीह के जन्मदिन के रूप में मनाया जाता है। इसमें कुछ चीजें बहुत खास होती हैं।
सेंट फ्रांसिस असिसि कैथेड्रल चर्च की खास बातें: Highlights of St. Francis Assisi Cathedral Church …
– इस चर्च को बनाने की अनुमति रियासत भोपाल की 8वीं शासिका सिकंदर जहां बेगम द्वारा दी गई थी।
– राजकुमारी इसाबेला ने 4 अक्टूबर 1873 को चर्च बनाने का काम शुरू करवाया था।
– करीब 11 वर्ष तक इसका काम चलता रहा। वर्ष 1875 में चर्च बनकर तैयार हो गया।
– 1963 में चर्च का जीर्णोद्धार किया गया। इसके बाद इसे कैथेड्रल (महाचर्च) का दर्जा दिया गया।
– नवाब काल में ब्रिटिश सैन्य छावनी सीहोर में थी। वहां के कई अफसर भी इस चर्च में प्रार्थना करने आते थे।
– इस चर्च को बनाने की अनुमति रियासत भोपाल की 8वीं शासिका सिकंदर जहां बेगम द्वारा दी गई थी।
– राजकुमारी इसाबेला ने 4 अक्टूबर 1873 को चर्च बनाने का काम शुरू करवाया था।
– करीब 11 वर्ष तक इसका काम चलता रहा। वर्ष 1875 में चर्च बनकर तैयार हो गया।
– 1963 में चर्च का जीर्णोद्धार किया गया। इसके बाद इसे कैथेड्रल (महाचर्च) का दर्जा दिया गया।
– नवाब काल में ब्रिटिश सैन्य छावनी सीहोर में थी। वहां के कई अफसर भी इस चर्च में प्रार्थना करने आते थे।
विशेषताएं : सेंट फ्रांसिस असिसि कैथेड्रल चर्च…
– खिड़कियां और रोशनदान इस तरह बनाए गए हैं कि सूर्य की रोशनी इसमें हर तरफ से आती है।
– यहां एक बार में लगभग 500 लोग प्रार्थना-सभा में शामिल हो सकते हैं। उनके बैठने के लिए लकड़ी की बैंच रखी गई हैं।
चर्च के परिसर में एक छोटा-सा फव्वारा लगा है।
– वर्ष 2012-13 इस चर्च के आर्चडायसिस बनने का गोल्डन जुबली ईयर था। इसमें शामिल होने कई जगह से बिशप, प्रीस्ट, सिस्टर्स और ईसाई धर्मावलंबी आए थे।
– कहा जाता है कि चर्च की स्थापना के बाद कुछ वर्षों तक यहां रोज प्रार्थना सभा नहीं होती थी। उस दौरान यहां प्रार्थना कराने के लिए आगरा, पटना, इंदौर आदि जगह से बिशप आते थे।
– खिड़कियां और रोशनदान इस तरह बनाए गए हैं कि सूर्य की रोशनी इसमें हर तरफ से आती है।
– यहां एक बार में लगभग 500 लोग प्रार्थना-सभा में शामिल हो सकते हैं। उनके बैठने के लिए लकड़ी की बैंच रखी गई हैं।
चर्च के परिसर में एक छोटा-सा फव्वारा लगा है।
– वर्ष 2012-13 इस चर्च के आर्चडायसिस बनने का गोल्डन जुबली ईयर था। इसमें शामिल होने कई जगह से बिशप, प्रीस्ट, सिस्टर्स और ईसाई धर्मावलंबी आए थे।
– कहा जाता है कि चर्च की स्थापना के बाद कुछ वर्षों तक यहां रोज प्रार्थना सभा नहीं होती थी। उस दौरान यहां प्रार्थना कराने के लिए आगरा, पटना, इंदौर आदि जगह से बिशप आते थे।