मुख्यमंत्री चौहान ने अपने ट्वीट संदेश में कहा है कि मध्यप्रदेश लेखक संघ के संरक्षक, वरिष्ठ साहित्यकार श्री बटुक चतुर्वेदी जी के निधन का दुखद समाचार मिला। साहित्य जगत के लिए यह अपूरणीय क्षति है। ईश्वर से दिवंगत आत्मा को अपने श्री चरणों में स्थान और परिजनों को यह गहन दुःख सहन करने की शक्ति देने की प्रार्थना करता हूं।
गृहमंत्री नरोत्तम मिश्र ने भी ट्वीट संदेश में दुख व्यक्त किया है। उन्होंने कहा है कि राष्ट्रवादी रचनाओं से काव्यमंच पर सशक्त उपस्थिति दर्ज कराने वाले प्रदेश के वरिष्ठ साहित्यकार श्री बटुक चतुर्वेदी जी के निधन की दुखद सूचना मिली है। ईश्वर से दिवंगत पुण्यात्मा की शांति और उनके परिजनों एवं प्रशंसकों को यह दुख को सहन करने की शक्ति प्रदान करने की प्रार्थना करता हूं।
विदिशा में बीता बचपन
बटुक चतुर्वेदी का बचपन विदिशा में बीता। वे दंडापूरा क्षेत्र में अपने सहपाठियों के साथ खेलते थे। स्कूली शिक्षा उन्होंने विदिशा में ही पूरी की। इसके बाद वे भोपाल चले गए। चतुर्वेदी विदिशा के प्राचीन गणेश मंदिर चिंतामणि गणेश के पुजारी परिवार से हैं। बटुक चतुर्वेदी के भतीजे विजय चतुर्वेदी और अश्विनी चतुर्वेदी विदिशा में ही रहते हैं।
साहित्य जगत में शोक की लहर
ध्रुव शुक्ल ने गहरा दुख व्यक्त करते हुए कुछ संस्मरण साझा किए हैं। शुक्ल ने बताया कि मुझे मध्यप्रदेश के अनेक लोक बोलियों के कवियों के मन में झाँकने का अवसर अपने छुटपन से ही मिलता रहा। बटुक चतुर्वेदी मेरे लोककवि पिता माधव शुक्ल मनोज के आत्मीय कविमित्र रहे हैं। मैंनें उनके लोककवि मन को बहुत करीब से परखा है। उनके मन में किसी गाँव के मेले जैसी आत्मीयता बसी रहती थी। वे अपनी कविताओं में बुंदेली लोकरंगी जीवन के अनेक शब्दचित्र रचते रहे। बटुक चतुर्वेदी ने अनेक संगीत रूपक भी रचे। जिनमें बुंदेलखण्ड की लोक धुनों– रैया, सैरा, पाई, गारी, स्वांग और फागों का समावेश किया। हमारी लोक बोलियों में अब ऐसे कवि कम हैं जो पारंपरिक लोकगीतों की भाव ऊर्जा के ताप को अपनी रचनाओं में अनुभव कर पाते हों। बटुक जी के रचे छंदों में लोकगीतों जैसी सहजता की खिड़कियाँ अनेक जगह खुली दिखायी पड़ती हैं। जहाँ बेला और चमेली एक-दूसरे की बैयाँ पकड़कर आँखों ही आँखों में फाग रचती हैं और झींगुर की झंकारें सुनकर नैनों के कोर भींजते हैं। लोकवाद्यों के स्वरों में बुनी उस लोकधुन को कभी नहीं भूल पाता जो भरी दुपरिया में भोपाल के रेडियो स्टेशन से भारत के हृदयप्रदेश में गूँजती थी, जैसे लोक बाँसुरी से कोई हूक उठ रही हो। वह धुन हमें अनजाने ही बाँधकर अपने पास बुलाती थी और हम बटुक जी के रचे लोकरंगी संगीत रूपकों के रस में डूब जाते थे। इस साल होली पर बटुक चतुर्वेदी हमारे साथ नहीं होंगे पर उनकी कविताओं में संचित अबीर-गुलाल हमारी स्मृतियों में झरता रहेगा।
उनके देहावसान पर मेरा विदा-प्रणाम।