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आदिवासी बाहुल्य इस आरक्षित सीट पर वैसे तो आठ प्रत्याशी मैदान में हैं। इनमें भाजपा, कांग्रेस के अलावा बसपा, सपा और आम आदमी पार्टी के उम्मीदवार भी शामिल हैं, लेकिन सीधा मुकाबला भाजपा-कांग्रेस प्रत्याशी में ही है। भाजपा और कांग्रेस ने मकड़ाई रियासत के वंशजों पर भरोसा किया है। शाह इसी रियासत के वंशज हैं। आदिवासी इस रियासत को अपना राजा मानते हैं, इसलिए चुनाव में इनकी ओर उनका झुकाव होता है।
इस बार भी ऐसा ही है। चूंकि इस बार दोनों उम्मीदवार एक इसी घराने के हैं, ऐसे में मतदाता असमंजस में है। वे खुलकर तो कुछ नहीं बोलते, लेकिन चर्चा के दौरान उनका दर्द झलक ही आता है। स्थानीय विधायक एवं भाजपा उम्मीदवार संजय शाह के मामले में नाराजगी भी है। नाराजगी का एक कारण यह भी है कि पिछले चुनाव में किए गए वादे पूरे नहीं हुए। रेलवे ओवरब्रिज की मांग वर्षों बाद भी पूरी नहीं हो सकी।
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क्षेत्र में हमारी मुलाकात यहां के आदिवासी किसान रमुआ से हुई। रमुआ ने बताया कि पिछले चुनाव में वादे किए थे कि किसानों की स्थिति में सुधार होगा। फसल के अच्छे दाम मिलेंगे, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। पास ही बैठे रमेश ने इनकी बात आगे बढ़ाते हुए कहा भावांतर योजना को अच्छा बताया जा रहा है, लेकिन इसका कोई लाभ नहीं मिला। किसान और परेशान हो गया है। कर्ज में डूबा किसान क्या करे।
मंत्री विजय शाह के लिए यह सीट प्रतिष्ठा का सवाल भी है। उनके छोटे भाई संजय ने अनुसूचित जाति वर्ग के आरक्षित इस सीट में पहली बार 2008 में निर्दलीय चुनाव जीते थे। वे 2013 में भाजपा के टिकट पर चुनाव जीते। भाजपा ने फिर इन पर दावं आजमाया है। इनके भतीजे अभिजीत इन्हें कितनी टक्कर दे पाते हैं ये देखना रोचक होगा। यहां के वोटरों ने कभी कांग्रेस को कभी भाजपा प्रत्याशी को चुना है। चुनाव में सभी ने वादे किए, लेकिन वादे पूरे नहीं हो पाए। ऐसे में वोटरों का भरोसा डगमगा रहा है।
संजय शाह, भाजपा प्रत्याशी
क्षेत्र की जनता बदलाव चाहती है। पिछले चुनाव में किए गए वादे पूरे नहीं हुए हैं। इसको लेकर यहां आंदोलन भी हुए। मैंने लोगों के साथ मिलकर समस्याओं के निराकरण की मांग की।
अभिजीत शाह, कांग्रेस प्रत्याशी