भोजपाल नाट्स महोत्सव के तहत द रिफ्लेक्शन सोसायटी फॉर परफॉर्मिंग आर्ट एंड कल्चर की ओर से खेल गए इस नाटक का लेखन वसीम खान ने किया। जबकि नाटक का निर्देशन तनवीर अहमद का रहा। सुरेंद्र वानखेड़े ने संगीत दिया। इसकी कहानी सन 1842 के बुंदेलखंड विद्रोह के पहले सूत्रधार पर आधारित रही।
हिरदेशाह लोधी जिसने राजपाट के ऐशो-आराम को छोड़कर जंगल-जंगल भटक कर स्वतंत्रता संघर्ष को ही अपना जीवन मान लिया और देश के लिए अपने परिवार का त्याग-बलिदान किया। वे बूढ़े होने पर भी फिरंगियों को छकाते रहे। 1842 में पहले बुंदेला विद्रोह के सूत्रधार के रूप में उभरकर वो आज इतिहास के पन्नों में कुछ शब्दों में ही लिखे जाते हैं।
पिता के बाद पुत्र मेहरबान ने जारी रखा विद्रोह
नाटक में दिखाया गया कि 75 साल के हिरदेशाह बीमार हैं, ब्रिटिश हुकूमत से विद्रोह के लिए हिरदेशाह अपने परिवार पुत्र मेहरबान सिंह, भाई सावंत सिंह के साथ जंगल कैंप लगाकर भटकते रहते हैं। साथ ही उन्होंने एक बढ़ी फौज तैयार की है जो समय पर फिरंगियों का सामना करती रहती है।
इधर हिरदेशाह का होने वाला दामाद ठान चुका है कि बारात तो हमारी जाएगी और फिर फिरंगियों से युद्ध करते हु उनका घेरा तोड़कर उनके पास पहुंच जाता है।
अंग्रेंजों से लड़कर दुल्हन को वापस भी ले आता है। इधर कैप्टन स्लीमैन और वाटसन, हिरदेशाह के राजे नवाबों के साथ संगठित विद्रोह से परेशान रहते हैं। वो जवाहर सिंह से बखत वाली को बरगलाने का काम लेते हैं बखत वाली गढ़ाकोटा के लालच में हिरदेशाह का ठिकाना बता देता है।
फिर हिरदेशाह गिरफ्तारी के लिए जाते हैं। विलियम स्लीमैन गवर्नर जनरल को पत्र लिखते हैं कि हिरदेशाह एक दूरदर्शी विद्रोही है। इससे पहले हुकूमत को ज्यादा खतरा पहुंचे उनका राज्य वापस दे दिया जाए और इस बड़े निर्णय के साथ 1842 का विद्रोह एक बड़ा संग्राम धीमा पड़ जाता है, जिससे हिरदेशाह टूट जाता है। उनके बाद उनका पुत्र मेहरबान सिंह इस विद्रोह का जारी रखता है।