वसुंधरा को पराजय का सामना करना पड़ा था। उनको 106757 और किशन सिंह जूदेव को 194160 मत प्राप्त हुए थे। इस चुनाव की सबसे रोचक बात यह है कि दोनों ही प्रत्याशी पहली बार चुनाव मैदान में उतरे थे।
वसुंधरा राजे भाजपा की संस्थापक सदस्य विजयाराजे सिंधिया की पुत्री होने के नाते राजनीतिक पृष्ठभूमि की थींं, जबकि किशन जूदेव गैर राजनीतिक थे। उन्हें पूर्व केंद्रीय मंत्री माधवराव सिंधिया पहली बार राजनीति के मैदान में लेकर आए थे।
वहीं, विजयाराजे सिंधिया अपनी पुत्री वसुंधरा को मध्यप्रदेश की राजनीति में स्थापित करना चाहती थीं। दतिया से लोकसभा प्रत्याशी उतारे जाने के बाद लोगों ने कांग्रेस का साथ दिया था और भाजपा को नकार दिया था।
ससुराल की राजनीति आई रास
वसुंधराराजे सिंधिया ने पहला चुनाव हारने के बाद दोबारा यहां से चुनाव नहीं लड़ा। इसके बाद उन्होंने ससुराल में राजनीति की और वहीं स्थापित हो गईं।
वर्ष 1984 में भिंड-दतिया संसदीय क्षेत्र से चुनाव हारने के बाद उन्होंने छह माह बाद राजस्थान के धौलपुर से विधानसभा चुनाव लड़ा और चुनाव जीतीं। इसके बाद वह 1989 में राजस्थान के झालावाड़ से लोकसभा का चुनाव लड़ीं।
इस चुनाव का रोचक किस्सा यह भी है कि कांग्रेस प्रत्याशी किशन जूदेव गैर राजनीतिक पृष्ठभूमि से होने की वजह से अपने भाषणों के दौरान कई बार मंचों पर भावुक हुए और उनकी आंखें झलक आईं।
कानाफूसी :- बैठक में बाउंसर का क्या काम: चुनाव मैदान में किस्मत आजमा रहे हैं तो सभी प्रकार के हथकंडे अपना पड़ेंगे। विरोधियों को शांत करना है तो मतदाताओं के नखरे भी सहना है।