यह स्थिति जल उपकर खत्म किए जाने के कारण बनी है। अब उद्योगों को यह बताने की जरूरत नहीं है कि इनके जरिए इस वक्त कितने जल का दोहन किया जा रहा है।
वहीं, दूसरी तरफ जल उपकर राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और समितियों की वित्तीय रीढ़ थी, जिसको खत्म किए जाने के बाद उनके पास आय के स्रोत में कमी आई है।
केंद्र सरकार ने दो साल पहले जल उपकर खत्म करने का आदेश जारी किया था। उसके बाद ना तो कोई नया नियम बना और ना ही प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को वित्तीय संसाधन उपलब्ध कराने का प्रयास किया गया। औद्योगों को तो फायदा हुआ पर प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड औद्योगिक इकाइयों की पुरानी देनदारी से ही अपना खर्च चला रहे हैं।
80 प्रतिशत राशि मिलती थी
जल (प्रदूषण निवारण व नियंत्रण) उपकर अधिनियम, 1977 के तहत स्थानीय प्राधिकरण (नगर निगम, नगर पालिका), औद्योगिक इकाइयों से वसूले जाने वाले जल उपकर को 1 जुलाई, 2017 को मिला दिया गया था।
इसके बाद जल उपकर का अस्तित्व खत्म हो गया। इस उपकर की 80 फीसदी प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को संचालन और प्रदूषण नियंत्रण के लिए मिलता था, जबकि 20 फीसदी केंद्र अपने पास रखता थी, ताकि उसका इस्तेमाल केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की परियोजनाओं में किया जा सके।
औद्योगिक इकाइयों से करीब दो साल से नया जल उपकर नहीं वसूला जा रहा है। इससे बोर्ड की आय में हर साल करीब 10 करोड़ रुपए की कमी आई है।
– हनुमंत सिंह मालवीय, अधीक्षण यंत्री मध्यप्रदेश प्रदूषण निवारण मंडल
इधर, जल संरक्षण पर मंथन करने के लिए बुलाया पर्यावरणविदों को
वहीं दूसरी ओर भाजपा प्रदेश अध्यक्ष राकेश सिंह ने प्रदेश के पर्यावरणविदों और जल संरक्षण के क्षेत्र में जुटे सामाजिक कार्यकर्ताओं की 14 जून को जबलपुर में एक बैठक बुलाई है। इस बैठक में प्रदेश की नदियों, कुओं, तालाबों और अन्य जल स्रोतों की सुरक्षा और संवद्र्धन की ठोस कार्ययोजना बनाई जाएगी।
राकेश ङ्क्षसह ने बताया कि मध्यप्रदेश नदियों का प्रदेश कहा जाता है, लेकिन पिछले कुछ वर्षों से देखने में आ रहा है कि प्रदेश की नदियां सूखने लगी हैं और भूजल स्तर बहुत तेजी से गिर रहा है। वर्तमान में जल का भीषण संकट दिखाई देने लगा है जो हमारी भावी पीढिय़ों के लिए एक खतरनाक संकेत है।