गिरिजा देवी के बारे में खास
‘ठुमरी की रानी’ के नाम से मशहूर गिरिजा देवी संगीत की दुनिया का जाना-माना चेहरा हैं। उनके चाहने वाले उन्हें प्यार से अप्पा जी कहकर बुलाते थे। बनारस की रहने वाली गिरिजा एक प्रसिद्ध भारतीय शास्त्रीय संगीत की जानकार गायिका रहीं। आज भारत में ठुमरी गायन को ख्याति दिलाने में उनका बड़ा योगदान रहा है। ठुमरी गायन को संवारकर उसे लोकप्रिय बनाने में उन्होंने अपना जीवन लगा दिया।
विरोध के बावजूद नहीं मानी हार
एक तरफ जहां गिरिजा के पिता उनके संगीत के गुर सीखने के प्रति फिक्रमंद थे, उनकी मां उतनी ही खिलाफ थीं। उनकी मां और दादी को उनका संगीत सीखने में समय गंवाना पसंद नहीं था। लेकिन फिर भी अपने गुरु की शिक्षा और अपने पिता के समर्थन को महत्व देते हुए उन्होंने संगीत को साधक मानते हुए अपनी मां और दादी की इच्छा के खिलाफ जाकर कड़ा परीश्रम किया। एक साक्षात्कार में गिरिजा देवी बताया था कि, आठ साल की उम्र होते-होते संगीत मेरे रोम रोम में जा पहुंचा था। उन्होंने न केवल ठुमरी, टप्पा, ख्याल आदि का गायन सीखा बल्कि बनारस के आस-पास के क्षेत्रीय गायन चैती, होरी, बारामासा आदि में अच्छी खासी ख्याति प्राप्त की। उन्होंने इन गानों को भी एक अलग रंग और ढंग से पैश किया।
परिस्थितियों से जीतकर हासिल किया मुकाम
15 साल की कच्ची उम्र में गिरिजा की शादी एक बिजनेसमैन मधुसुदन जैन से हुई। वैसे तो मधुसुदन की पहले भी एक बार शादी हो चुकी थी लेकिन फिर भी गिरिजा के पिता ने उन्हें ही उनके लिए चुना, क्योंकि उन्हें पता था कि मधुसुदन कला-प्रेमी है और उन्होंने वादा भी किया कि वे कभी भी गिरिजा के गायन पर प्रतिबंध नहीं लगाएंगे। इस बात का जिक्र करते हुए गिरीजा देवी ने खुद अपने द्वारा दिये एक साक्षात्कार में अपने पति के बारे में बताते हुए कहा था कि, ‘शादी के बाद उन्होंने मुझसे कहा कि तुम गाओ, कोई समस्या नहीं है। लेकिन किसी बड़े घर या फिर निजी महफ़िल में गाने की जरूरत नहीं है। उसके बजाए किसी बड़ी कांफ्रेंस, कॉन्सर्ट या रेडियो पर गाने को महत्व देना। उन्होंने कहा कि, उस समय तक मेरे पहले गुरु भी दुनिया से विदा हो चुके थे, इसलिए मेरे पति ने एक दुसरे गुरु श्रीचंद मिश्रा से मुझे शिक्षा दिलवाई।
इत्तेफाख से ख्याति तक का सफर
वैसे तो उन्होंने साल 1949 से रेडियो पर गायन शुरु कर दिया था, लेकिन तब तक उन्होंने पब्लिक के सामने कोई प्रस्तुति नहीं दी थी। साल 1951 में वे बिहार में आरा में एक कांफ्रेंस में शामिल होने गईं थीं। यहां उस सयम के ख्याति प्राप्त गायक पंडित ओंकारनाथ जी का गायन होना था, लेकिन कार्यक्रम में पहुंचने के दौरान रास्ते में उनकी गाड़ी खराब हो गई, जिस कारण वे समय पर पहुंचने में असमर्थ थे। ऐसे में आयोजकों के सामने कार्यक्रम को व्यवस्थित रूप से संचालित करना एक बड़ी चुनौती बन गया था। इस दौरान आयोजनकर्ताओं में ही किसी ने गिरिजा देवी को उनके स्थान पर गाने की अपील की। इस आयोजन से ही उन्हें काफी ख्याति मिलनी शुरु हुई और यहीं से उनका पब्लिक के सामने गायन करने का सफर भी शुरु हो गया।
गिरिजा देवी से जुड़ी कुछ खास बातें
गिरिजा ने रेडियो के लिए भी बहुत कार्यक्रम किये। लोग अगर उन्हें सुनते तो सुनते ही रह जाते थे। उनके सुर लोगों का मन मोह लेते थे। उनके जीवन और संगीत के उपर डॉक्युमेंट्री भी बनी- गिरिजा: अ लाइफटाइम इन म्यूजिक! इसे उनके ही छात्रों ने बनाया। अपने जीवन का अंतिम समय उन्होंने कोलकाता के संगीत रिसर्च अकादमी में बिताया। संगीत के लिए किये योगदान के कारण उन्हें कई सम्मान और पुरस्कार मिले। उन्हें भारत सरकार ने तीनों विशिष्ट सम्मानों से सम्मानित किया। साल 1972 में पद्मश्री, साल 1989 में पद्मभूषण तो साल 2016 में उन्हें पद्मविभूषण की उपाधि मिली। इसके अलावा उन्हें संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार और महान संगीत सम्मान अवार्ड से भी नवाज़ा गया। 24 अक्टूबर, 2017 को कोलकाता में दिल का दौरा पड़ने से उनका निधन हो गया। उनके चाहने वालों का कहना है कि, आज वो तो इस दुनिया में नहीं हैं, लेकिन वो अपने पीछे संगीत की एक अमूल्य विरासत छोड़ गई हैं। जिसे संगीत प्रेमियों की हर पीढ़ी के लिए आशीर्वाद माना जाएगा।