आचार्य निर्भय सागर महाराज ने बताया कि जैन धर्म में नौ अंक को सर्वमान्य माना गया है। आचार्य श्री ने बताया कि नवरात्रि में नौ देवताओं की आराधना की गई। इनमें अरिहंत, सिद्ध आचार्य, उपाध्याय और साधू हैं।
पांच प्रविष्टियां हैं, इनमें जिन मंदिर, जिन प्रतिमा, जिन धर्म, और जैन शास्त्र। जैन धर्म के अनुसार नौ देवता हमें अक्षय शक्ति प्रदान करते हैं, क्योंकि नौ का अंक अक्षय है। इसमें कितने का भी गुण किया जाए शेष नौ ही आता है। आचार्य श्री ने बताया कि दो चक्र होते हैं, धर्म चक्र और शुदर्शन चक्र। धर्म चक्रतीर्थांकरों का होता है और सुदर्शन चकचक्रवर्ती राजाओं का।
एक चक्रएक-एक हजार दैवीय शक्तियों से रक्षित होता है। उस शक्ति को प्रगट करके भरत स्वामी ने अश्विन शुक्ल दशमी को दिग्विजय यात्रा पर निकले, इसलिए इसे दिग्विजय दशमी कहा जाता है। जैन समुदाय के लोग इस दिन उस शक्ति की आराधना करते हैं।
बुराइयों को जलाएं
आ चार्य निर्भय सागर महाराज ने बताया कि रावण के दशमुख नहीं थे। उसके माथे में जो मुकुट था, उसमें दशमुख दिखते थे। रावण के जीवन में दश बुराइयां थीं, उन बुराइयों को निकालने के लिए दशहरा भी दश लक्षणा पर्व का रूप होता है। महाराज श्री ने कहा, पाप से घृणा करो, पापी से नहीं। रावण के पुतले को नहीं जलाना चाहिए, क्योंकि वह भी हिंसा है। अपने अंदर बैठी दश बुराइयों को जलाओ, इनमें पांच पाप, चार कसाय और एक मूढ़ता है। क्रोध, पाप, मोह, लोभ, क्रूरता, कलह, हठ, प्रतिशोध व वासना रावण में बुराइयां थीं। किसी के पुतले को जलाना हिंसा है चाहे वह कोई हो।
अरिहंतों की आराधना की
जैन दर्शन के अनुसार नवरात्रि का बड़ा ही महत्व है। प्रथम चक्रवर्ती भरत स्वामी ने छह खंडों की दिग्विजय यात्रा शुरू करने के पूर्व इस कार्य की सिद्धि के लिए, जो तीर्थांकरों की यक्ष यक्षिणियां होती हैं, उनकी आराधना न करके साकार और निराकार परमात्मा अर्थात अरिहंत और सिद्धों की आराधना की। अरिहंतों की जो यक्षिणी होती हैं, वही शक्ति के रूप में नवरात्रि में पूजी जाती हैं। अहं ब्रम्ह वृषभ देव की यक्षिणी चक्केशरी, वास पूज्य भगवान की यक्षिणी महागौरी, नेमिनाथ की कुष्मांडा, पुष्पदंत भगवान की यक्षिणी काली देवी, अरिहंत तीर्थांकर की यक्षिणी जया देवी थी। इस प्रकार कई देवियों के नाम तीर्थांकरों की यक्षिणियों के रूप में मिलते हैं, जिनकी आराधना वैष्णव सम्प्रदाय नवरात्रि में करता है।