मध्यप्रदेश में कांग्रेस ने अब तक का सबसे खराब प्रदर्शन किया है। 2014 के मुकाबले 2019 में उसकी करारी हार हुई है।
2014 में कांग्रेस ने 02 सीटों पर जीत दर्ज की थी तो 2019 में उसे केवल छिंदवाड़ा में जीत मिली है।
दिग्गज नेताओं की हार से बढ़ी कांग्रेस की मुश्किलें, संकट में कई बड़े नेताओं का राजनीतिक भविष्य!
भोपाल.लोकसभा चुनाव में मध्यप्रदेश कांग्रेस की पहली कतार के लगभग सारे नेताओं के सफाए ने जहां कांग्रेस के सामने नेतृत्व का संकट खड़ा कर दिया है। तो पराजित नेताओं के सियासी भविष्य पर भी सवालिया निशान लगा दिया है। ऐसे में संभावना जताई जा रही है कि पार्टी आलाकमान नए चेहरों को आगे ला सकती है। महज 6 महीने पहले मध्यप्रदेश में भाजपा के 15 साल के शासन को उखाड़ फेंकने वाली कांग्रेस ने लोकसभा चुनावों में ऐतिहासिक हार का सामना किया। हार भी ऐसी की 29 लोकसभा सीटों में से 28 पर शिकस्त खानी पड़ी, और शिकस्त भी इतनी बड़ी कि हर सीट हार का औसत 3 लाख 11 हजार 120 वोट रहा। ऐसी स्थिति तब बनी जब सत्ताधारी कांग्रेस अपने विधानसभा चुनाव के वचन पत्र के किसान कर्ज माफी समेत 83 वादे पूरे करने का दंभ भर रही थी।
कभी अपने व्यक्तित्व, जनता के साथ जीवंत रिश्ता और विकास की अलख को लेकर जिन दिग्गज नेताओं की सक्रियता मानी जाती थी, आज उनका सियासी भविष्य ही संकट में दिखाई दे रहा है। हालांकि आलाकमान में उनकी गहरी पैठ उन्हें इस संकट से उबारने के लिए पूरी तरह सक्षम है। हो भी सकता है कि हार के बाद ऐसे नेताओं को संगठन में बड़ा ओहदा दे दिया जाए लेकिन भविष्य में उनके सामने पराजय का पेंच आड़े नहीं आएगा यह कैसे
दिग्विजय सिंह: सबसे ज्यादा चर्चा पूर्व सीएम दिग्विजय सिंह के भविष्य को लेकर है। दिग्विजय संगठन के सबसे जानकार नेता माने जाते हैं। विधानसभा चुनाव में समन्वय के लिए कमलनाथ ने उनका उपयोग बखूबी किया। भोपाल से चुनाव लड़ना उनके सियासी जीवन का सबसे गलत फैसला माना जाएगा। भोपाल जैसी कठिन सीट से चुनाव लड़ने का निर्णय उनका नहीं था। वे तो राजगढ़ सीट से चुनाव लड़ना चाहते थे। लेकिन सीएम कमलनाथ ने उन्हें भोपाल से लड़ने के लिए मनाया। दिग्विजय अभी राज्यसभा में हैं, जहां उनका कार्यकाल अगले साल मई तक है। उसके बाद पार्टी उनका क्या उपयोग करती है, यह देखने वाली बात होगी।
ज्योतिरादित्य सिंधिया: 2002 से 2014 तक लगातार 4 बार गुना लोस सीट से जीतते आ रहे थे। सिंधिया अपनी 5वीं चुनावी लड़ाई भाजपा के केपी यादव से हार गए। सिंधिया की हार का अंतर 1 लाख 25 हजार 549 वोट रहा। गुना सीट सिंधिया परिवार का राजनीतिक गढ़ माना जाता रहा है। तीन पीढ़ियों से सिंधिया घराने का कब्जा रहा है। ज्योतिरादित्य की दादी विजयराजे सिंधिया और पिता माधवराव सिंधिया ने जीतकर इतिहास रचा था। विजयराजे सिंधिया 6 बार, माधवराव सिंधिया 4 बार ने गुना का प्रतिनिधित्व किया। आजादी के बाद यह ग्वालियर राजघराने या ‘महल’ के किसी व्यक्ति की पहली चुनावी हार है। हार के बाद अब ज्योतिरादित्य को प्रदेश की कमान सौंपने की मांग उठ रही है। पार्टी हाईकमान ‘महाराज’ को कहां का सिंहासन देता है, यह दिलचस्प होगा।
इसे भी पढ़ें- सुमित्रा महाजन को लेकर उड़ी ये अफवाह, तो बीजेपी नेता देने लगे बधाईअजय सिंह: विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष की भूमिका निभा चुके हैं। विस के बाद लोस चुनाव हार कर खुद को कमजोर कर चुके हैं। प्रदेश अध्यक्ष से लेकर अन्य पदों के लिए अजय सिंह के दावे कमजोर। अजय ने दोनों चुनाव अपने प्रभाव वाले क्षेत्र से लड़ा इसलिए हार के लिए किसी दूसरे नेता पर तोहमत भी नहीं लगाई जा सकती।
कांतिलाल भूरिया: प्रदेश अध्यक्ष जैसे बड़े ओहदे पर रह चुके हैं। विस चुनाव में अपने बेटे को नहीं जितवा पाए। लोकसभा चुनाव में खुद की हार को नहीं टाल सके। पिता पुत्र को भाजपा के एक ही नेता जीएस डामोर ने हराया। पिछले लोस चुनाव में भी भूरिया को भाजपा उम्मीदवार दिलीप सिंह ने हराया था। दिलीप सिंह भूरिया के निधन से हुए उपचुनाव ने उन्हें दोबारा संसद पहुंचाया। भूरिया कांग्रेस की परंपरागत सीट रतलाम झाबुआ से चुनाव हारे हैं। उनकी इस हार ने उनके सियासी भविष्य को उलझा दिया है।
इसे भी पढ़ें- मोदी कैबिनेट में अनुभव के आधार पर मिला मंत्रालय: 4 मंत्रियों में से 3 को ही अपने विभाग की जानकारी अरुण यादव: पूर्व में प्रदेश अध्यक्ष की कमान संभाल चुके हैं। खंडवा लोकसभा सीट से चुनाव गंवा चुके हैं। विधानसभा चुनाव में खंडवा संसदीय सीट के अधिकांश विस क्षेत्र कांग्रेस के पाले में थे। अरुण के अनुज यानी छोटे भाई कमलनाथ सरकार में कृषि मंत्री हैं। विधानसभा में अरुण ने शिवराज सिंह चौहान के सामने बुदनी से चुनाव लड़ा था। बुदनी में भी उन्हें शिवराज ने जबरदस्त शिकस्त दी थी। अरुण राहुल गांधी की गुड बुक में भी शामिल हैं। उनका राजनीतिक पुनर्वास अब कहां होता है, यह देखना दिलचस्प होगा।
हालांकि चुनाव में टिकट मिलना मौजूदा परिस्थितियों पर निर्भर करता है, इसके बावजूद राजनीतिक दल पुराना रिकॉर्ड खंगालकर ही भावी निर्णय लेते हैं। बीती पराजय पीछा नहीं छोड़ती वहीं तब तक नए दावेदार सामने आ चुके होते हैं। ये अलग बात है कि कांग्रेस ही शायद ऐसी इकलौती पार्टी है जिसके चुनाव हार चुके नेता भी 5 साल तक अपने क्षेत्र की कमान संभालते रहते हैं, संगठन में उनकी पूरी भागीदारी रहती है। फिर सियासत का अंदाजा भी तो नहीं लगाया जा सकता।