कैसी थी वो खौफनाक रात
साल 1984 की 2 और 3 दिसंबर की उस मनहूस रात को जिसने भी देखा, उसके बारे में सोचकर वो आज भी सिहर उठता है। चारों और सड़कों पर पड़ी लाशें, जिनमें कई अपने भी थे। हर तरफ से आ रही चीख पुकार की आवाज गैस पीड़ितों के कानों में आज भी गूंजती हैं। सड़कों पर कहीं खून की उल्टियां पड़ीं थीं, तो कहीं भीड़ की भागदौड़ में दबकर घायल हुए लोग, इनमें मासूम बच्चे भी थे और बुजुर्ग भी। लेकिन, चाहकर भी कोई एक दूसरे की मदद नहीं कर पा रहा था। लोग बस इधर उधर भागकर खुद को बचाने की जद्दोजहज कर रहे थे। कई घंटों तक तो किसी को पता ही नहीं था कि, आखिर हुआ क्या है। आंखों को जला देने वाली और सांस रोक देने वाली फिजा में लोग बेदम भागने को मजबूर थे। यकीन मानिये ऐसा मंजर देखकर भूल पाना किसी के लिए भीं संभव नहीं ।
पीड़ितों ही नहीं डॉक्टरो को भी नहीं पता था कारण
रात करीब डेढ़ बजे से लोगों का हॉस्पिटल अस्पताल पहुंचने का सिलसिला शुरू हुआ। शुरू में ये संख्या इक्का दुक्का थी, लेकिन थोड़ी ही देर में ये बढ़कर दर्जनों, फिर सेकड़ों फिर हजारों में हो गए। तब कहीं जाकर सरकारी अमले को गैस त्रासदी की भीषणता का एहसास हुआ। हालात नियंत्रित करने के लिए डॉक्टरों को इमरजेंसी कॉल किया गया। मगर इस जहर के बारे में जाने बिना इलाज मुश्किल था। तब एक सीनियर फोरेंसिक एक्सपर्ट की जुबान पर आया मिथाइल आईसोसायनाइड का नाम। बता दें कि, सायनाइड एक ऐसा जहर है जिसे ईजाद करने वाला ही उसका स्वाद बताने के लिए जिंदा नहीं रहा। लेकिन, उस रात भोपाल की आबादी में सायनाइड की गैस घुल गई थी। तो जरा सोचिये कि, उस रात का मंजर कैसा होगा।
क्या थी उस रात की कहानी, सुनिये पीड़ितों की जुबानी
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-हर इंसान वसीम की तरह खुशकिस्मत नहीं था
पुराने शहर के इस्लामपुरा में रहने वाले वसीम अहमद ने उस स्याह रात की आप बीती सुनाई। उनका कहना था कि, वो रात किसी कयामत से कम नहीं थी। उस रात के बारे में बताते हुए वसीम ने कहा कि, त्रासदी वाली उस रात को मैं ही क्या कोई भी गैस पीड़ित भूल नहीं सकता और मैं ये भी नहीं कह सकता वो रात मुझ पर ही सबसे ज्यादा भारी थी उस रात का शिकार हुआ हर शख्स अपना एक अलग रोंगटे खड़े कर देने वाला किस्सा सुना सकता है, जो उसपर बीता है। क्योंकि, वो रात किसी कयामत (प्रलय) से कम नहीं थी।
वसीम ने बताया कि, मुझे अच्छे से याद है कि उस रात घर के पड़ोस में शादी थी। इसपर मैने सोचा कि, शायद पड़ोसी खाने में छौंक लगा रहे होंगे, जिसपर धांस उड़ रही है। मेने सोचा, चलो पानी से धो लेता हूं, तकलीफ ठीक हो जाएगी। वसीम ने बताया कि, वो कुछ ही देर पहले लिली टॉकीज से नाइट शो देखकर अपने घर लौटा था, उस समय तक बाहर किसी भी तरह की गंद या आंखों में जलन मेहसूस नहीं हुई, ये घर आने के कुछ देर बाद शुरु हुई, इसलिए पहला अंदाजा पड़ोस में होने वाली शादी पर गया। उस समय आंखों में बहुत तेज जलन हो रही थी, लेकिन ये नहीं पता था, कि ये जलन जीवनभर की सजा बन जाएगी। घड़ी में रात के 2 बज रहे थे। करीब 1 बजे रात से शुरु हुई आंखों में जलन और सांस लेने में तकलीफ अब बेतहाशा हो चुकी थी। वसीम अब बेसुध होने की स्थिति में थे। घर के बाहर निकलकर देखते हैं, आसपास के लोगों की हालत बहुत खराब थी। वसीम इस वक्त एक ऐसे दुश्मन की गिरफ्त में थे, जो उनकी आंखों के सामने नहीं था और हर पल उन्हें मौत की ओर धकेल रहा था। वसीम ने बेसुध हालत में उस जगह को छोड़कर कहीं भाग लेने में ही भलाई समझी।
घर से निकलकर कहीं दूर निकल जाने का फैसला लेने तक वसीम पूरी तरह निढाल हो चुके थे। फिर भी अपनी पूरी हिम्मत बटोरकर सड़क पर निकल आया। कभी चलता, कभी भागता तो कभी सड़क पर पड़े बेसुध लोगों से या शायद लाशों से टकराकर गिर जाता। बाहर के नजारे को देखकर वसीम को समझ नहीं आ रहा था कि, आखिरकार ये पूरे शहर को हो क्या रहा है। वसीम के मुताबिक, वो इतवारे के रास्ते होते हुए शाहजहांनी पार्क की ओर पहुंच गया। यहां वो अपनी जान बचाने के लिए आया था, लेकिन सामने पार्क में देखता है कि, चारों ओर लाशें ही लाशें पड़ीं हुईं थीं। ये मंजर देखकर उसकी आंखों के सामने अंधेरा छा गया।
फिर भी उसने हार नहीं मानी और सड़क पर घिसटते घिसटते मौत से जंग लड़ते हुए वो रेलवे स्टेशन जा पहुंचा। खुशकिस्मती से सामने एक ट्रेन खड़ी थी, गिरते पड़ते वो उसमें सवार हो गया। वसीम का कहना है कि, इसके बाद वो बेहोश हो गया, होश आया तो किसी अस्पताल के पलंग पर पड़ा था। पड़ोस में खड़ी एक नर्स से पूछने पर उसने बताया कि, आप होशंगाबाद के सरकारी अस्पताल में हैं। शायद रेलकर्मियों ने आपको प्लेटफॉम पर छोड़ दिया था। आप जिंदा थे इसलिए आपको अस्पताल लाया गया। वहां करीब एक सप्ताह तक उनका इलाज चला, फिर कहीं जाकर वो अपने घर लौट पाए। वसीम कहते हैं, कि शायद ये उनकी खुशकिस्मती थी, जो बेसुध अवस्था में भी वो भोपाल से दूर निकलने में कामयाब हो गए, लेकिन उस रात शहर के हर शख्स की ऐसी किस्मत नहीं थी।
उस रात मौत ने रुलाया, फिर जिंदगी रोता छोड़ गई
यूनियन कार्बाइड की फैक्ट्री के ठीक सामने बसा है जेपी नगर। ये वही इलाका है, जो जहरीली गैस से सबसे ज्यादा, सबसे पहले और सबसे बाद तक प्रभावित रहा। यहां रात 12 बजे के बाद ही भगदड़ शुरु हो गई थी। कई लोग मर चुके थे, कई मरने की कगार पर थे। जो बच गए थे, वो उस जगह को छोड़कर ज्यादा से ज्यादा दूर जाने की कोशिश कर रहे थे। इसी भीड़ में हाजरा बी भी थीं, जो अपने छोटे से बेटे को सीने से लगाए दौड़ी चली जा रहीं थीं। कुछ भी समझ न पाने की स्थिति में पहुंच चुकी हाजरा सिर्फ भाग रही थी, आंखों की जलन और गले की तकलीफ को बर्दाश्त करते हुए गिरते पड़ते अपने घर और बस्ती से दूर निकल आईं।
मिचमिचाती आंखों से हाजरा कभी अपने मासूम बेटे का चेहरे देखकर परेशान हो जातीं, तो कभी कांपते हाथों का सहारा लेकर खड़े होने की कोशिश करतीं। हाजरा थक चुकी थी और एक जगह लड़खड़ाकर बैठ गईं। घर से बेसुध होकर निकली हाजरा अब सोचने समझने की कोशिश कर रहीं थीं कि ये हो क्या रहा है। होश वापस आ ही रहे थे तभी अचानक ख्याल आया- ‘हाय! बड़ा बेटा तो घर पर ही रह गया।’ अब हाजरा मौत से भी बदतर महसूस कर रहीं थीं। भागते, चीखते लोगों की भीड़ के बीच हाजरा ने वापस जाने की ठानी। होश जैसे तैसे वापस लौटे ही थे कि, सिर पर जुनून सवार हो गया। बेटे को वहां छोड़कर मरने नहीं दे सकती। लड़खड़ाते कदमों और अंधेरी रात में अपने बेटे को वापस लाने की जिद ठान चुकी हाजरा वापस लौट रहीं थीं कि, अचानक लगा पूरी जमीन घूम गई..आवाजें धीमी पड़नीं लगीं.. हाजिरा बेहोश हो गईं।
कोई रो रहा था शायद.. गूंजती हुई रोने की आवाज हाजरा के कानों से टकरा रही थी। आंख खुली तो कुछ उजाला हो चला था। हाजरा ने जहां सोचना बंद किया था, आंखें पूरी भी नहीं खुलीं थीं कि दिमाग फिर वहीं था। झटके से खड़े हुई और वापस उसी रास्ते पर दौड़ीं, जहां से मौत ने उन्हें दौड़ाना शुरू किया था। हांफती-कांपती हाजरा अपने झोपड़े का सामने थीं। दिमाग सुन्न हो चुका था, हवास खो चुके थे, हाजरा अंदर पहुंचीं..बेटा जमीन पर औंधे पड़ा था। हाजरा को सामने कुछ साफ दिखाई नहीं दे रहा था। उन्होंने हाथों के सहारे से बेटे को जमीन पर औंधा पड़ा महसूस किया। किसी तरह बेटे को सीधा किया, बेटे के मुंह पर हाथ फेरा तो उसके मुंह से कुछ गाढ़ा सा झाग निकल रहा था, जिससे हाजरा का पूरा हाथ सन गया। बेटे के मूंह से ये क्या निकल रहा था, जो वो देख भी नहीं पा रही थीं। उस समय मानों हाजरा को बस मौत ही नहीं आ रही थी। वो पागलों की तरह चीखने लगीं। रोती बिलखतीं हाजरा समझ नहीं पा रहीं थीं कि अब क्या करूं। किसी से पूछतीं भी, तो वहां था ही कौन बताने को।
वैसे उस रात मौत ने भी अपने सारे पत्ते नहीं खोले थे, कुछ चालें चलीं जाना अब भी बाकी थीं। बंद गले से ही चीखती चिल्लाती हाजरा को ये खुशी तो थी, कि वो किसी तरह उस समय तक तो अपने घर पहुंच गई, जब उसके बच्चे की सांसे रुकी नहीं थीं। हालांकि, उस वक्त तक बेटे की रग रग में एमआईसी का जहर घुल चुका था। जैसा कि हमने आपको बताया कि मौत ने अभी अपने सारे पत्ते खोले नहीं थे। हाजरा बी के उस बेटे ने आठ साल जिंदगी और मौत के बीच जंग लड़ी, इस दौरान गुजरा हर पल वो तिल तिल करके मरता रहा। फिर एक दिन वो अभागा आखिरकार टूट गया। जिंदगी और मौत के इस खेल में उसने हार मान ली। हाजरा बी का कहना है कि, मेने अपने बड़े बेटे को इतनी तकलीफ में देखा है कि जब उसकी मौत हुई, तो मैं दुखी होने के बजाय खुश थी, ये सोचकर कि, मरने के बाद उसके चेहरे पर तकलीफ के कोई भाव नहीं थे, यानी मरकर वो अपनी तकलीफों से आजाद हो गया था। अब हाजरा, अपने छोटे बेटे के साथ शहर के उसी जेपी नगर में रह रही हैं, लेकिन उनके जख्मों पर आज भी कोई पर्याप्त मरहम लगाने वाला हाथ नहीं बढ़ा।
उस रात भोपाल में सांस लेने वाले हर इंसान पर गुजरे थे वो हालात
ये सिर्फ वसीम और हाजरा की ही कहानी नहीं है, बल्कि उस रात भोपाल में सांस लेने वाले हर शख्स की कहानी है। कुछ लोगों पर शायद इससे थोड़ा कम गमों का पहाड़ टूटा था, तो कुछ पर इससे कई ज्यादा। सरकारी रिकॉर्ड के अनुसार, उस रात मारे गए हजारों लोगों में करीब 400 लोग तो ऐसे थे, जिनकी शिनाख्त करने वाला ही कोई नहीं आया। यानी उनकी शिनाख्त करने वाले भी उस स्याह रात में अपनी जान गंवा चुके थे। इसके अलावा शहर के लगभग हर मुख्य मार्गों और चौराहों पर गुमशुदा लोगों के सैकड़ों हजारों फोटो चस्पा थे। जो कई महीनों वहां चस्पा रहे। हालांकि, इनमें से कुछ तो अपने घर लौट आए, लेकिन कई लोगों के रिश्तेदार आज भी अपनों की तलाश में जुटे हैं। पता नहीं वो कभी घर लौटेंगे या नहीं।
अब तक पीड़ितों को नहीं मिला उनका हक
घटना के बाद पीड़ितों को लाखों आश्वासन दिये गए। कहते हैं, दुनिया की सबसे बड़ी त्रासदी होने के कारण दुनियाभर के लोगों और कई देशों ने मदद राशि भोपाल को दी थी। यहां तक भी सुनने में आया कि, घटना से आहत होकर दुनियाभर के कई मजदूरों तक ने अपनी एक दिन की मजदूरी भोपाल गैस त्रासदी के पीड़ितों के लिए भेजी थी। लेकिन, पीड़ित आज भी इंसाफ के लिए दर बदर भटक रहे हैं। बीच में कई बार फाइलें भी सरकी, कई लोगों को मुआवजा भी मिला और कई दफा इसे लेकर प्रदर्शन भी किये गए, लेकिन जो जख्म पीड़ितों को मिले थे, उनपर अब तक पर्याप्त मरहम लगाने कोई हाथ नहीं बढ़ा।