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शिक्षकों की पहल: बच्चों में से गणित का डर निकालने किए नवाचार

- पेंचीदा सवालों के सरल 'मास्टर'

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भोपाल। गणित का नाम सुनते ही विद्यार्थियों के दिमाग में लंबे-लंबे सवाल घूमने लगते हैं। कभी-कभी विद्यार्थी इस शब्द से इतने भयभीत हो जाते हैं कि स्कूल ही छोड़ देते हैं। ऐसे में प्रदेश के कुछ शिक्षकों की पहल रंग लाई और उनके नवाचारों ने बच्चों को गणित का दोस्त बना दिया। आज से बच्चे गणित के पेचीदा सवालों के भी 'मास्टर' हो गए हैं।

बच्चों का डर दूर करने लिखीं किताबें
भोपाल के एकलव्य आदर्श आवासीय विद्यालय के प्रिंसिपल डॉ. यशपाल सिंह ने बताया कि मैं जब गणित का लेक्चरर था, तब देखा कि जनजातीय क्षेत्रों से आने वाले बच्चों को सबसे ज्यादा डर गणित और इंग्लिश से ही लगता है। इन्हीं दो विषयों के कारण ड्रॉपआउट रेट ज्यादा थी। तब मैंने गणित की तीन किताबें लिखीं, जिनमें ट्रीकी तरीके से कठिन से कठिन सवाल को सरलता से हल करने के तरीके बताए।

मैं आज भी गणित से भयभीत छात्रों की अलग से क्लास लेता हूं और सबसे पहले उनके मन में बैठे डर को दूर करता हूं। 17 फरवरी को मैंने स्मार्ट क्लास के सहयोग से गणित का प्रस्तुतिकरण विषय पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के समक्ष एक प्रजेंटेशन भी दिया है।

50 हजार बच्चे हो चुके पारंगत
बालाघाट के शासकीय हाईस्कूल डाइट में पदस्थ अशोक चौबे साइकिल, खिड़की, दरवाजे, कांच की गोलियां, सांप-सीढ़ी, लूडो, रोटी, बेलन, गैस सिलेंडर, पतंग, माचिस आदि को गणित से जोड़कर पढ़ाते हैं। इन चीजों का उपयोग करने से बच्चों को गणित रोचक लगने लगती है। वे पिछले 37 वर्षों में 50 हजार से अधिक बच्चों को गणित विषय में पारंगत कर चुके हैं।

संख्या कार्ड और चौखाने से सीख रहे गणित
इटारसी के स्टेशनगंज मिडिल स्कूल में पदस्थ पूजा सोलंकी ने बताया कि कोरोना के बाद सरकारी स्कूलों के बच्चों की पढ़ाई प्रभावित हुई है। बच्चों को 0 से 9 तक संख्या कार्ड बनाकर दिए और क्लास रूम में फर्श पर चॉक से कॉलम बनाकर इकाई, दहाई, सैकड़ा और हजार की पेंटिंग करवाई। इससे फायदा यह हुआ कि पहले स्कूल में जहां 30-35 बच्चे पढऩे आते थे, अब 100 बच्चे खेल-खेल में गणित सीख रहे हैं।

वेस्ट मटेरियल से गणित के फॉर्मूले
बैतूल के यादोराव पांसे ने बताया कि खड्डे और लकडिय़ों के सहारे दंड आलेख, पाइथागोरस प्रमेय को समझाने के लिए विशेष रूप से शिक्षण सामग्री तैयार की है। इससे बच्चे खेल-खेल में गणित के फॉर्मूलों को याद कर लेते हैं। इस प्रयास के लिए राज्य स्तर पर वर्ष 2017 में सम्मान भी मिल चुका है।