10 साल में यह दूसरा मौका है, जब इतने अधिक मरीजों की मौत हुई है। इससे पहले 2015 में स्वाइन फ्लू से 78 मरीजों की मौत हुई थी। इसकी वजह विभाग द्वारा सरकारी अस्पतालों में स्वाइन फ्लू की जांच और इलाज तय मानकों के अनुसार नहीं करना है।
मालूम हो कि प्रदेश में सबसे ज्यादा मौत इंदौर में हुई हैं। वहां अब तक 65 मरीजों की जान जा चुकी है। इधर स्वास्थ्य संचालनालय के अफसरों के मुताबिक राजधानी में हुई मौतों में से 23 भोपाल के और 29 दूसरे जिलों के हैं। यह वे मरीज है, जिनका उपचार भोपाल में हो रहा था।
वर्ष — संदिग्ध — पॉजीटिव — मौत
2009 — 78 — 08 — 00
2010 — 619 — 139 — 39
2011 — 79 — 03 — 01
2012 — 408 — 66 — 12
2013 — 344 — 35 — 09
2014 — 60 — 07 — 04
2015 — 2200 — 752 — 78
2016 — 591 — 82 — 12
2017 — 685 — 171 — 31
2018 — 254 — 35 — 03
2019 — 1282 — 255 — 52
बीते वर्षों में शहर में मरीजों की संख्या के आधार पर मौत के मामले ज्यादा हैं। इस साल हर पांचवें मरीज की मौत हो रही है, जबकि 2015 में हर 10वें मरीज की मौत हुई थी, हालांकि 2010 में यह आंकड़ा प्रति तीन पर एक था।
मौत की प्रमुख 3 वजह
मरीज खुद देरी से अस्पताल आते हैं, तब तक संक्रमण फेफड़ों तक पहुंच जाता है। डॉक्टरों के मुताबिक 48 घंटे में इलाज शुरू होना चहिए।
दवा देने में डॉक्टर देरी करते हैं। मरीज के सी कैटेगरी में पहुंचने पर ही दवा दी जाती है और जांच होती है। विशेषज्ञों ने कहा कि बिना जांच भी दवा की शुरुआत करनी चाहिए।
स्वाइन फ्लू का इलाज देर से शुरू होने की वजह जांच में कोताही भी है। सिर्फ सी कैटेगरी (गंभीर) के मरीजों के स्वाब के नमूने ही जांच के लिए भेजे जा रहे हैं।
इनफेक्शन स्टडी के नाम पर खानापूर्ति
नेशनल सेंटर फॉर डिसीज कंट्रोल की गाइड लाइन में संक्रमण काबू करने इनफेक्शन स्टडी की जाती है, लेकिन खानापूर्ति की गई। पॉजिटिव मरीजों के डेटा के आधार पर संक्रमण क्षेत्रों की पहचान होती है।
शहर में 52 मरीजों की मौत हुई है। इनमें 29 दूसरे जिलों के हैं। अस्पतालों में व्यवस्थाएं हैं।
– डॉ. एनयू खान, सीएमएचओ, भोपाल