मैं रोहतक में परिवार के साथ रहती थी। वॉलीबॉल की स्टेट प्लेयर थी। 17 साल की उम्र में मुझ पर एसिड अटैक हुआ, तब मैं प्रैक्टिस के लिए जा रही थी। एसिड अटैक हुआ तो मोहल्ले वाले मदद की बजाय तमाशबीन बने रहे। यदि मुझे तुरंत अस्पताल ले जाते तो इतना दर्द नहीं झेलना पड़ता। अब तक मेरे सात ऑपरेशन हो चुके हैं। अभी और न जाने कितने ऑपरेशन होने बाकी हैं। उन्होंने कहा कि दरअसल एसिड उस व्यक्ति के दिमाग में भरा होता है। यदि वो लड़का सोच लेता कि शरीर पर जरा-सा गर्म तेल गिर जाने पर कितना दर्द होता है, तो वो एसिड नहीं फेंकता।
एसिड के कारण मेरे चेहरे के साथ हड्डियां तक चली गईं। आंखों से दिखना बंद हो गया। मैं दो माह तक अस्पताल में भर्ती रही। पैरेन्ट्स के सपोर्ट ने मुझे टूटने नहीं दिया। मैं छांव फाउंडेशन से जुड़ी और मेरी ही तरह की विक्टिम्स के लिए काम करने लगी। आगरा में हमने सीरोज हैंडआउट कैफे खोला। उसमें दस सर्वाइवर काम करती थीं।
लोग जैसे ही कैफे में आते, उन्हें लगता कि हम इनका चेहरा क्यों देखें। वे वहां एक मिनट रुकना तक पसंद नहीं करते थे। उन्हें लगता था कि हम इनकी मदद क्यों करें। कई बार तो दिनभर में एक ग्राहक भी नहीं आता था। हम सभी रोते थे, एक-दूसरे को हिम्मत बंधाते थे कि एक दिन हमें कामयाबी जरूर मिलेगी। करीब एक साल तक ये चलता रहा। आज लोगों को सोच बदली है, हमें भी सामान्य इंसान की तरह समझाना जाने लगा है। हमारे कैफे में अब ग्राहक आने लगे हैं। उन्होंने बताया कि हमने लखनऊ में भी कैफे खोला, जहां 15 सर्ववाइवर जॉब करती हैं।