संस्थान की कार्यवाह निदेशक डा. नीता खांडेकर ने बताया कि ‘किस्म पहचान समिति’ ने सोयाबीन की 6 किस्मों के उपयोग के लिए अनुशंसा की है। ये किस्में देश के तीन कृषि जलवायु क्षेत्रों में सोयाबीन की खेती के लिए बहुत उपयुक्त होंगी। उत्तरी पहाड़ी क्षेत्र के लिए किस्म वीएलएस 99 , उत्तरी मैदानी क्षेत्र के लिए एनआरसी 149 और मध्य क्षेत्र के लिए 4 अलग—अलग किस्में एनआरसी 150, एनआरसी 152, जेएस 21-72 तथा हिम्सो-1689 की अनुशंसा की गई है। सोयाबीन अनुसंधान संस्थान इस वर्ष सोयाबीन की तीन किस्मों की पहचान करने में सफल रहा।
इन सभी किस्मों की अपनी विशेषताएं हैं. सोयाबीन की एनआरसी 149 किस्म उत्तरी मैदानी क्षेत्र के प्रमुख पीला मोेजेक रोग, राइोक्टोनिया एरियल ब्लाइट के साथ-साथ गर्डल बीटल और पर्णभक्षी कीटों के लिए भी प्रतिरोधी है। किस्म एनआरसी 152 अतिशीघ्र पकने वाली है और खाद्य गुणों के लिए उपयुक्त है. इसके साथ ही अपौष्टिक क्लुनिट् ट्रिप्सिंग इनहिबिटर तथा लाइपोक्सीजेनेस एसिड-2 जैसे अवांछनीय चीजों से पूरी तरह मुक्त है।
जवाहरलाल नेहरू कृषि विश्वविद्यालय से संबद्ध जबलपुर केंद्र में विकसित सोयाबीन की किस्म जेएस 21-72 चारकोल रोट, बैक्टीरियल पस्ट्यूल, पीला मोजेक वायरस और लीफ स्पाट रोग के लिए प्रतिरोधी है. इसके साथ ही यह 98 दिन में पक सकती है।
सोयाबीन अनुसंधान केंद्र इंदौर में विकसित सोयाबीन की किस्म एनआरसी 150 के उपयोग की अनुशंसा भी किस्म पहचान समिति ने की है। इसकी विशेषता यह है कि यह महज 91 दिन में पक जाती है। यह किस्म रोग प्रतिरोधी भी है। सबसे खास बात यह है कि सोया गंध के लिए जिम्मेदार लाइपोक्सीजिनेज-2 एंजाइम से एनआरसी 150 किस्म पूरी तरह मुक्त है।