1. नरेंद्र सिंह तोमर- ग्वालियर सीट बदलकर मुरैना से लडऩे के दांव पर ही जीत-हार टिकी है। वे पिछली बार ग्वालियर में कम अंतर से जीते थे। इस बार फिर हालात अच्छे नहीं थे। विधानसभा चुनाव में ग्वालियर संसदीय क्षेत्र की 8 में से 7 सीट पर कांग्रेस आगे रही। हालात मुरैना में भी ऐसे ही हंै, लेकिन मुरैना में तोमर को पांच साल की एंटी इंकम्बेंसी का सामना नहीं करना पड़ेगा।
ये बाधा – मुरैना सांसद रहे हैं। क्षेत्र में नाराजगी बढऩे पर 2014 में सीट छोड़ ग्वालियर से लड़े। यहां हालात बिगड़े तो फिर मुरैना का रुख किया। मौकापरस्ती के चलते कार्यकर्ताओं में अंदरूनी विरोध है। इससे जमीनी नेटवर्क ध्वस्त हुआ।
ये सकारात्मक – मुरैना में अनूप मिश्रा के विरोध का फायदा तोमर को मिल सकता है। ग्वालियर की तुलना में एंटी इंकम्बेंसी कम है। अंचल में कद्दावर नेता की छवि। भाजपा के परंपरागत वोट बैंक का साथ मिलना।
ये बाधा – लोकप्रिय चेहरा न होना। मिलनसार व सहज उपलब्ध नहीं। प्रदेश अध्यक्ष होने के बावजूद खुद का उतना कद न बना पाना। क्षेत्रीय पकड़ में कमी। जमीनी नेटवर्क नहीं।
ये सकारात्मक – प्रदेश अध्यक्ष होने के नाते संगठन का साथ। अमित शाह का सपोर्ट। भाजपा का गढ़ होना। परंपरागत वोटबैंक का साथ। कांग्रेस में मजबूत प्रत्याशी न होना।
ये बाधा- पार्टी की स्थानीय अंदरूनी कलह। चिटनीस ने पटरी न बैठना। क्षेत्र में कम सक्रियता। बयानबाजी के विवादों से नकारात्मक छवि बनना। बेटे के कारण विवादों में घिरना। पार्टी में लगातार साइडलाइन होना।
ये सकारात्मक – प्रतिद्वंद्वी अरुण यादव का उनकी पार्टी में विरोध। कांग्रेस की कमजोरी का फायदा मिल सकता है। पूर्व प्रदेश अध्यक्ष होने के नाते क्षेत्रीय संगठन का साथ मिलना। मिलनसार हैं। बूथ नेटवर्र्किंग बेहतर।
ये बाधा- पार्टी की स्थानीय गुटबाजी व कलह। उमा की करीबी का नुकसान। भितरघात को कंट्रोल न कर पाना। स्थानीय दिग्गज नेताओं से मतभेद।
ये सकारात्मक- सरल व्यक्तित्व। क्षेत्र में सक्रिय। बड़ा राजनीतिक कद रखना। क्षेत्र में पकड़। स्थानीय परंपरागत वोटबैंक साथ होना।
– राकेश सिंह, अध्यक्ष, प्रदेश भाजपा
– कांतिलाल भूरिया, सांसद, रतलाम-झाबुआ