केरवा-कलियासोत के जंगल में बाघिन टी-123, इसके शावक टी-123,1 और टी-123,2 भ्रमण कर रहे हैं, इसके अलावा रातापानी से एक व्यस्क बाघ भी यहां आता-जाता है। टी-123 के शावक भी रातापानी तक आना-जाना करते हैं। एक्सपर्ट्स का कहना है कि इन जंगलों को रातापानी के साथ बफर जोन के रूप में नोटिफाइड कर बाघ संरक्षण की दिशा में बड़ा कदम उठाया जा सकता है।
किसी भी टाइगर रिजर्व या नेशनल पार्क के कोर एरिया के बाद उसका बफर जोन होता है। दरअसल कोई भी वन उसकी सीमा के साथ किसी बाड़बंदी के तहत खत्म नहीं किया जा सकता। ऐसे में मुख्य या कोर एरिया से एक सीमा तक वन क्षेत्र चिन्हित किया जाता है जो कि वन्य प्राणियों के लिए बफर जोन का काम करता है। यह दो से 20 किलोमीटर का बफर जोन ही वन्य जीवों और मानवों के बीच टकराव को रोकता है। इसी के तहत रातापानी के बफर जोन के रूप में केरवा-कलियासोत को शामिल किया जा सकता है।
रातापानी देश की अकेली ऐसी सेंचुरी है जिसकी बाउंड्री किसी नेशनल पार्क से नहीं छूती है फिर भी यहां बाघ हैं। बाघ प्रोजेक्ट में शामिल होने के गुण होने के चलते 2008 में इस दिशा में काम शुरू हुआ। इसी वर्ष प्रस्ताव बना लेकिन इसके 14 साल बाद अंदर आ रहे कुछ गांवों को कोर एरिया से बाहर रखने का हल निकलने पर अब जाकर इसकी प्रक्रिया में तेजी आई है। वर्तमान में टाइगर रिजर्व की मैपिंग चल रही है जिसके बाद चरणबद्ध तरीके से प्रक्रिया आगे बढ़ेगी।
सेवानिवृत्त वन अधिकारी
एवं वन्य प्राणी विशेषज्ञ केरवा-कलियासोत के जंगलों में यदि बाघ-मानवों का टकराव रोकना है तो इस क्षेत्र के अंदर जो भी निजी रकबे हैं, उन्हें यहां से विस्थपित किया जाना चाहिए। इसके साथ ही कड़ा कदम उठाते हुए संस्थानों को भी दूसरी जगह जमीन देकर शिफ्ट किया जाना चाहिए। राजस्व के खसरों को वन क्षेत्र में शामिल कर, अन्य खसरों का सेटलमेंट कर पूरे इलाके को वन क्षेत्र बना दिया जाए तो बाघों को विचरण क्षेत्र मिल जाएगा और ऐसा करके बफर जोन भी बनाया जा सकता है। ऐसा होने पर ही बाघों की रक्षा हो सकेगी और टकराव रुकेगा।
केसी मल्ल,
पूर्व सहायक वन संरक्षक