जिन्होंने अपने यादगार रमजान और रोजों को साझा करते हुए बताया कि उस जमाने में खेत खलियान ज्यादा होते थे। शहर का तो मिलो दूर पता नहीं होता था, एक रमजान ऐसा भी आया, जिसमें पानी की परेशानी ज्यादा बढ़ गई। ऐसे में इफ्तार से पहले भरपूर पानी का इंतेजाम करना पड़ता था। घर से पांच किलो मीटर दूर जाकर पानी लेकर आना वाकई यादगार पल थे।
उस समय गुस्सा भी आता था और मजा भी। उस समय हमारे यहां की एक मात्र फैक्ट्री के सायरन बजने का इंतजार हुआ करता था। उसकी आवाज से ही लोग रोजा खोलते थे। रोजा के समय सायरन बजाने का निर्देश फैक्ट्री मालिक देते थे, ताकि रोजादारों को कठिनाई न हो और वह समय पर रोजा खोल सकें। सेहरी के लिए हर दरवाजे पर दस्तक दी जाती थी।
अल्लाह का अदब फजल की तलब
रोज़ा दरअसल अल्लाह के प्रति अदब का ‘मीटर’ भी है और फजल का ‘मैटर’ भी। अदब के मायने है सम्मान। फजल का मतलब है मेहरबानी। कुदरती बात है कि जब हम किसी का अदब करते हैं यानी आदर या सम्मान करते हैं तो वह खुश होता है, प्रभावित होता है। यहां तक कि अगर स्वभाव में सख्त है तो भी अदब या अपना आदर होते देखकर अभिभूत होकर व्यवहार में नरम हो जाता है और आदर देने वाले के प्रति मेहरबान भी।
कभी जरूरत पडऩे पर ऐसे व्यक्ति से किसी कार्य के लिए कहा जाए तो वह आपका कार्य करने की कोशिश भी करेगा यानी किए गए अदब या दिए गए आदर का ‘रिटर्न’ देगा। आपकी तलब को मुनासिबत (औचित्यपूर्णता) के साथ पूरा करेगा। अगर तलब पूरी नहीं कर पाया तो आपकी प्रशंसा दूसरे लोगों से करेगा कि आप में ‘मैनर्स’ है यानी संस्कार हैं। खुलासा यह है कि ‘मैनर्स’ या ‘संस्कार’ की तारीफ होती है और इसी वजह से कार्य भी हो जाते हैं।
यह तो हुई रोजमर्रा की जिंदगी की बात। इसी से समझ लीजिए रोज़ेदार की जिंदगी की बात। जब अदब करने से कोई शख्स खुश होकर मेहरबान हो जाता है तब अल्लाह (ईश्वर) का अदब किया जाए यानी उसको आदर दिया जाए तो वह कितना खुश होकर मेहरबान होगा, इसका न तो अनुमान लगाया जा सकता है, न सीमा बताई जा सकती है।
परहेजगारी से रोज़ा रखकर जब रोज़ेदार अल्लाह का अदब करता है यानी इबादत करता है तो अल्लाह अपने बंदे के इस जज्बे से खुश होता है और ऐसे में रोज़ेदार बंदा अल्लाह से फजल की तलब करता है तो दुआ कुबूल हो जाती है। दरअसल, अल्लाह का डर ही फजल देता है। पवित्र कुरआन में जिक्र है, ‘अल्लाह से डरो! बेशक अल्लाह को तुम्हारे सब कामों की खबर है।’