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नष्ट हो रहे नर्मदा-बेतवा संस्कृति के निशान

भोपाल के लोगों से ज्यादा विदेशी जानते हैं यहां का पुरातात्विक महत्व…

भोपालJan 05, 2019 / 11:31 am

दिनेश भदौरिया

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नष्ट हो रहे नर्मदा-बेतवा संस्कृति के निशान

भोपाल. राजधानी के आसपास पुरातात्विक और एतिहासिक धरोहरों का खजाना है, लेकिन सरकारी तंत्र की उदासीनता से इसे अभी तक एक्सप्लोर नहीं किया जा सका है। पुरातत्वविदों की मानें तो तेजी से बढ़ते शहरीकरण में इन धरोहरों के लुप्त हो जाने का खतरा मंडरा रहा है। हाल ही में वरिष्ठ पुरातत्वविद् डॉ. नारायण व्यास की यह चिंता जायज है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण से रिटायर होने के बाद भी वे राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पुरातत्व व इतिहास से जुड़े कार्यों में उल्लेखनीय योगदान दे रहे हैं।
नेशनल हिस्टोरिकल रिकॉर्ड कमेटी, नेशनल मॉन्युमेंट अथॉरिटी की सलेक्शन कमेटी, मप्र ऑर्कियोलॉजिलक विभाग, रॉक आर्ट सोसाइटी ऑफ इंडिया, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र के कोआर्डिनेटर, डॉ. वाकणकर रिसर्च इंस्टीट्यूट समेत संस्थानों से जुड़े डॉ. व्यास भोपाल की ऐतिहासिक व पुरातात्विक विरासत को बचाने का प्रयास कर रहे हैं। उनका कहना है कि जितना भोपाल के लोग यहां की ऐतिहासिक-पुरातात्विक धरोहरों के बारे में नहीं जानते, जितना स्पेन, फ्रांस, नीदरलैंड आदि देशों के लोग जानते हैं। वे यहां आकर इनका अध्ययन कर रहे हैं।

डॉ. व्यास ने बताया कि हाल ही में उन्होंने राजीव गांधी प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय और बगरोदा इंडस्ट्रियल एरिया के पास स्थित पहाडिय़ों का भ्रमण किया था। वहां उन्हें दस हजार साल से लेकर 15-17 लाख साल पुराने तक ऐतिहासिक व पुरातात्विक साक्ष्य मिले हैं। इनमें रॉक शेल्टर्स, रॉक पेंटिंग्स और प्रारम्भिक पाषाण काले के पत्थर के औजार व हथियार शामिल हैं। रॉक पेंटिंग्स में कहीं भैंसे, कहीं अन्य जीवों समेत विभिन्न चित्र मौजूद हैं।

आरजीपीवी के पास पहाड़ी पर 8-10 रॉक शेल्टर्स बने हुए हैं। बगरोदा की पहाड़ी पर सैकड़ों की मात्रा में आदिमानव के पाषाण हथियार बिखरे हुए हैं। इनमें से 40-50 पाषाण शस्त्र वे उठाकर ले आए। वर्ष 1957-58 में पद्मश्री डॉ. विष्णु श्रीधर वाकणकर यहां आए थे और उन्होंने कोशिश भी की थी, लेकिन इन खास क्षेत्रों को अभी तक एक्सप्लोर नहीं किया जा सका।

डॉ. व्यास को कोलार इलाके में केरवा वाटर प्रोजेक्ट की वाटर लाइन की खुदाई में चार-पांच फीट नीचे पाषाणकालीन मानव के हथियार (पेबल टूल्स) मिले थे। इन्हें गोलाश्म या गोलाकार वटिकाश्म भी कहते हैं। आदिमानव इन पत्थरों को चॉपर्स के रूप में इस्तेमाल करता था। इन पत्थरों की जांच करने पर पता चला कि ये लगभग १६ से १७ लाख वर्ष पुराने हैं। भोपाल के आसपास से चॉपर्स, पेबल टूल्स, भाला, कुल्हाड़ी, वसूली, चॉपर्स, स्क्रैपर्स, तीर समेत कई तरह के पत्थर के हथियार पाए गए हैं।
गंगा-जमुना से पुरानी सभ्यता
यह क्षेत्र विंध्याचल पर्वत श्रृंखला में आता है। इस श्रृंखला में तमाम नदियां-घाटियां हैं। नर्मदा-बेतवा क्षेत्र में मानव विकास के प्राचीनतम अवशेष मिले हैं। यहां की सभ्यता गंगा-जमुना से भी बहुत पुरानी है। भोपाल पाषाणकाल का प्रमुख केन्द्र रहा। भोपाल के सिवा रायसेन, विदिशा, सीहोर, होशंगाबाद, राजगढ़ आदि जिलों में आदिमानव की सभ्यता बहुत पनपी। यहां प्रचुर मात्रा में खाने के लिए कंदमूल, फल, शस्त्र बनाने को पत्थर आदि थे।

भोपाल पुरा पाषाण काल और उत्तर पाषाण काल की सभ्यता का प्रमुख केन्द्र रहा है। विकास के साथ ऐतिहासिक, पुरातात्विक व सांस्कृतिक धरोहरों को बचाने की जरूरत है।
– डॉ. नारायण व्यास, वरिष्ठ पुरातत्वविद्
आरजीपीवी, बगरौदा आदि राजधानी के आसपास स्थानों पर पाए गए रॉक शेल्टर्स, रॉक पेंटिंग्स, टूल्स की प्रामाणिकता की जांच की जाएगी। इसके बाद उन्हें संरक्षित करने का प्रस्ताव तैयार किया जाएगा।
– भुवन विक्रम, अधीक्षण पुरातत्वविद्, भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण

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