पंडित सुनील शर्मा के अनुसार सृष्टि की रंचना के प्रारम्भ में भगवान विष्णु क्षीर सागर में प्रकट हुए। विष्णु जी के नाभि-कमल से ब्रह्मा जी उत्पन्न हुये थे। ब्रह्मा जी के पुत्र का नाम धर्म था, जिसका विवाह वस्तु नामक स्त्री से हुआ। धर्म और वस्तु के संसर्ग से सात पुत्र उत्पन्न हुए। सातवें पुत्र का नाम वास्तु रखा गया, जो शिल्पशास्त्र की कला में पारांगत था। वास्तु के एक पुत्र हुआ, जिसका नाम विश्वकर्मा रखा गया, जिन्होंने वास्तुकला में महारथ हासिल करके एक नयी मिशाल कायम की।
विश्वकर्मा पूजा के लिए व्यक्ति को प्रातः स्नान आदि करने के बाद अपनी पत्नी के साथ पूजा करना चाहिए। पत्नि सहित यज्ञ के लिए पूजा स्थान पर बैठें। हाथ में फूल, अक्षत लेकर भगवान विश्वकर्मा का नाम लेते हुए घर में अक्षत छिड़कना चाहिए। भगवान विश्वकर्मा की पूजा करते समय दीप, धूप, पुष्प, गंध, सुपारी आदि का प्रयोग करना चाहिए। पूजा स्थान पर कलश में जल तथा विश्वकर्मा की मूर्ति स्थापित करनी चाहिए।
विश्वकर्मा प्रतिमा पर फूल चढ़ने के बाद सभी औजारों की तिलक लगा के पूजा करनी चाहिए। अंत में हवन कर सभी लोगों में प्रसाद का वितरण करना चाहिए। विश्वकर्मा पूजा के समय इस मंत्र का जाप करके अपनी मनोकमना की प्रार्थना करनी चाहिए ‘‘ऊॅ श्री श्रीष्टिनतया सर्वसिधहया विश्वकरमाया नमो नमः” विश्वकर्मा पूजा विधिवत करने से जातक के घर में धन-धान्य तथा सुख-समृद्धि की कभी कोई कमी नही रहती है। भगवान विश्वकर्मा के प्रसन्न होने से व्यक्ति के व्यवसाय में वृद्धि होती है तथा इच्छित मनोकामना पूरी होती है।
1. हम अपने प्राचीन ग्रंथो उपनिषद व पुराण आदि का अवलोकन करें तो पायेगें कि आदि काल से ही विश्वकर्मा शिल्पी अपने विशिष्ट ज्ञान एवं विज्ञान के कारण ही न मात्र मानवों अपितु देवगणों द्वारा भी पूजित है।
-विश्वकर्मा वैदिक देवता के रूप में मान्य व पूजनीय हैं। प्रारम्भिक काल से ही विश्वकर्मा के प्रति सम्मान का भाव रहा है। विश्वकर्मा को गृहस्थी के लिए आवश्यक सुविधाओं का निर्माता और प्रवर्तक माना गया है।
मान्यता के अनुसार भगवान विश्वकर्मा के अनेक रूप बताए जाते हैं- दो बाहु वाले, चार बाहु व दस बाहु वाले तथा एक मुख, चार मुख और पंचमुख वाले। उनके मनु, मय, त्वष्टा, शिल्पी एवं दैवज्ञ नामक पांच पुत्र हैं। यह भी मान्यता है कि ये पांचों वास्तु शिल्प की अलग-अलग विधाओं में पारंगत थे और उन्होंने कई वस्तुओं का आविष्कार किया। इस प्रसंग में मनु को लोहे से, तो मय को लकड़ी, त्वष्टा को कांसे एवं तांबे, शिल्पी ईंट और दैवज्ञ को सोने-चांदी से जोड़ा जाता है।
भगवान विश्वकर्मा की महत्ता स्थापित करने वाली एक कथा है। इसके अनुसार वाराणसी में धार्मिक व्यवहार से चलने वाला एक रथकार अपनी पत्नी के साथ रहता था। अपने कार्य में निपुण था, परंतु विभिन्न जगहों पर घूम-घूम कर प्रयत्न करने पर भी भोजन से अधिक धन नहीं प्राप्त कर पाता था।