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इस दिन का मकसद
यूनाइटेड नेशन द्वारा 11 जुलाई को विश्व जनसंख्या दिवस के रूप में मनाने का उद्देश्य ये था कि, उस दौरान अचानक सामने आए जनसंख्या के आकड़े चौंकाने वाले थे। संयुक्त राष्ट्र संघ ने अनुभव किया कि इस प्रकार दिवस मनाकर दुनिया के सभी देशों का ध्यान दुनिया की बढ़ती आबादी की ओर लाया जा सकता है। इसके बाद इसे वैश्विक स्तर पर मनाने का निर्णय लिया गया। इस विशेष जागरूकता उत्सव के द्वारा परिवार नियोजन के महत्व जैसे जनसंख्या मुद्दे के बारे में जानने, कार्यक्रमों के ज़रिये लोगों को जागरुक करने, लैंगिक समानता, माता और बच्चे का स्वास्थ्य, गरीबी, मानव अधिकार, स्वास्थ्य का अधिकार, लैंगिकता शिक्षा, गर्भनिरोधक दवाओं का इस्तेमाल और सुरक्षात्मक उपाय जैसे कंडोम, जननीय स्वास्थ्य, नवयुवती गर्भावस्था, बालिका शिक्षा, बाल विवाह, यौन संबंधी फैलने वाले इंफेक्शन आदि गंभीर विषयों पर विचार रखे जाते हैं।
ये हैं सबसे बड़े कारण
मध्य प्रदेश के वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. शरद सिंह के मुताबिक, देश-प्रदेश में तेज़ी से बढ़ती जनसंख्या वृद्धि का बड़ा कारण दूषित सामाजिक व्यवस्था और आर्थिक विपन्नता है। उन्होंने कहा कि, समाज में बेटियों की अपेक्षा बेटों की ललक ने जनसंख्या के समीकरण को बिगाड़ने में बड़ा योगदान किया है। एक बेटे की पैदाइश की चाह में आज भी मध्यम वर्ग एवं निम्नमध्यम वर्ग में बेटियों के रूप में जनसंख्या बढ़ती जा रही है। भले ही उन बेटियों का उचित लालन-पालन नहीं हो पाता हो और वे जीवन भर उपेक्षित रहती हों, किंतु जनसंख्या में वृद्धि की भागीदार बनी हुई हैं। समाज में ऐसा कोई परिवार दोषी भी नहीं ठहराया जाता। कहीं अगर दोषी ठहराया जाता है तो सिर्फ उन मांओं को, जो बेटियों को जन्म देती हैं, जबकि अब यह विज्ञान भी सिद्ध कर चुका है कि गर्भस्थ शिशु के वर्ग निर्धारण के लिए सिर्फ मां जिम्मेदार नहीं होती।
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सामाजिक समस्याएं भी बढ़ रहीं
डॉ. शरद सिंह के अनुसार, वैसे तो ये कहीं ना कहीं पूरे विश्वस्तरीय समीक्षा है, लेकिन अगर हम बात सिर्फ देशव्यापी तौर पर करें तो, दुर्भाग्य से हम आज भी जनसंख्या के नियंत्रण के आवश्यक लक्ष्य को प्राप्त करने का ठोस निराकरण नहीं निकाल पाए हैं। हालांकि, गनीमत है कि आज के अधिकांश पढ़े-लिखे नागरिक बच्चों की सीमित संख्या का अर्थ समझते हुए दोनों ही धन कमाते हुए दो या तीन बच्चों की ही अच्छी परवरिश करने पर प्रतिबद्ध हुए हैं। इस तरह बहुत मामूली ही सही पर परिवार नियोजन ने स्थिति को कुछ हद तक संतुलित करने में योगदान दिया ही है। वरना भारत की जनस्ख्या भी न जाने कब की सोमालिया और सूडान जैसी भयावय गणना पर जा पहुंचती।
कहां पहुंच चुके हैं हम
हालांकि, अभी भी इस ओर जागरुकता का बड़ा अभाव है। विश्लेषकों द्वारा जुटाए आंकड़ों की मानें तो स्थितियां अब भी हमारी पकड़ से काफी दूर हैं। बीते साल 2018 में सामने आए आंकड़ों के मुताबिक भारत की जनसंख्या 1 अरब 32 करोड़ 41 लाख 71 हज़ार 354 है, जो पिछले एक दशक में पंद्रह फीसदी से ज्यादा तेज़ी से बढ़ी है। आंकड़ों के अनुसार, देश में पुरुषों की संख्या लगभग 62.37 करोड़ और महिलाओं की संख्या 58.64 करोड़ है। चिंताजनक तथ्य यह है कि छह वर्ष तक की उम्र के बच्चों में लिंगानुपात में आजादी के बाद से सर्वाधिक बढ़त हुई है। पिछली गणना में यह प्रति हजार लिंगानुपात 927 था जो अब घटकर 914 हो गया है।
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सरकार को उठाना होगा ठोस कदम
जनसंख्या में हो रही तेज़ी से बढ़ोतरी की वजह से पर्यावरण, आवास, रोज़गार के साथ साथ कई सामाजिक समस्याएं भी पैर पसार रही हैं। सरकार का ये दायित्व है कि, वो इस तेज़ी से बढ़ती आबादी को रोकने के कोई पर्याप्त उपाय निकाले। अगर अब भी इस बढ़ती आबादी पर नियंत्रण नहीं किया गया, तो आने वाले समय में भारत को विश्व की सबसे बड़ी जनसंख्या वाला देश बनने से कोई नहीं रोक सकेगा। इसके परिणाम स्वरूप भविष्य की स्थितियां और भी विकट होना स्वभाविक हैं। क्योंकि, अनियंत्रित आबादी न सिर्फ आर्थिक संकट पैदा करती है, बल्कि भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने में भी बड़ा योगदान करती है। अनियंत्रित आबादी के कारण जल, वायु, खनिज तथा ऊर्जा के परंपरागत स्रोतों का अनियोजित दोहन हमें मानव जीवन के पतन की ओर ले जा रहा है। बढ़ती आबादी को फैलने की जगह देने के लिए वनों की अंधाधुंध कटाई और कृषि भूमि का दोहन की लगातार बढ़ता जा रहा है, जो एक गंभीर चुनौती बनता जा रहा है।
सिर्फ 1 नहीं 365 दिन जागरूकता की ज़रूरत
डॉ. सिंह ने इस गंभीर चुनौती के निराकरण स्वरूप सलाह देते हुए कहा कि, सिर्फ जनसंख्या दिवस पर एक दिन सरकारी तौर पर उत्सवी होकर मनाने से कुछ नहीं होगा। इसे तभी सार्थक किया जा सकता है हर देशवासी के ज़हन से लैंगिक असमानता दूर होगी। अगर हम ऐसा करने में कामयाब होंगे, तब कहीं जाकर अपने प्रकृतिक संसाधन बचा पाएंगे, देश की बिगड़ती अर्थव्यवस्था में सुधार ला पाएंगे और एक सुनहरे भविष्य की आशा कर सकेंगे। एक जमाने में जिस मध्य प्रदेश में खासतौर पर बुंदेलखंड में अन्य प्रदेशों से आकर लोग आजीविका के संसाधन जुटाया करते थे उसी बुंदेलखंड से आज लोग देश में सबसे ज्यादा तेज़ी से पलायन करने को मजबूर है।
प्रदेश की राजधानी होने के नाते जिस तेज़ी से यहां कारोबार में उछाल आया था, बढ़ती महंगाई के कारण आज उसी शहर में कारोबार निम्न स्तर पर है और अव्यवस्थाओं का अंबार है। कुल मिलाकर हकीकत ये है कि, हमें बलिष्ठ होने के लिए अपनी सीमा तय करनी होगी तभी हम किसी भी चीज़ के व्यवस्थित होने की अपेक्षा कर सकते हैं। वरना भविष्य में निराशा की ओर बढ़ने का सिलसिला तो गतिमान रूप से जारी है।