ट्रेन में ही इफ्तार हुआ और एक सेहरी भी की। तमाम परेशानियों के बाद भी रोजा नहीं छोड़ा। घर पहुंच वालिद से मुलाकात ने यह सब भुला दिया। मेरी जिंदगी का ये सबसे यादगार रोजा था। यह कहना है ६५ वर्षीय डॉ. मौलाना मोहम्मद मंसूर आलम जामई का।
यूनानी शफाखाने के पास मस्जिद के इमाम और बच्चों को शिक्षा देने का काम कर रहे हैं। इन्होंने बताया कि बिहार में उनका पुश्तैनी घर है। २००७ में रमजान के दौरान घर से वालिद की तबीयत खराब होने की खबर मिली। उस दिन शायद २६वां रोजा था। रोजे की हालत में जाने के लिए ट्रेन में रिजर्वेशन की कोशिश की लेकिन मिला नहीं। ऐसे में जनरल बोगी में ही सवार हो गई।
इफ्तार का वक्त हुआ तो पानी पीकर ट्रेन में ही इफ्तार कर लिया। दिल में कई तरह के ख्याल आ रहे थे। सफर में ही रात गुजर गई। सुबह सेहरी का वक्त हुआ तो ट्रेन में ही थोड़ा बहुत कुछ खाकर रोजा रख लिया। करीब ३६ घंटे में १७०० किलोमीटर का सफर कर घर पहुंचा। वालिद का चेहरा देख सफर की थकान कहां गायब हो गई मालूम ही नहीं चला। मेरे लिए ये सबसे यादगार रोजे में से एक था। रोजे की हालत में पूरे सफर भर वालिद की खैरियत के लिए दुआएं मांगता रहा। जो अल्लाह ने कुबूल की।
.. अगर नियत कर ली तो सब आसान
नियत के ऊपर सारा दारोमदार है। अगर नियत कर ली जाए तो कुछ भी मुश्किल नहीं है। रोजा हमें यही सीख देता है। ताकि हम बुराईयों से खुद को रोक सके।
नियत के ऊपर सारा दारोमदार है। अगर नियत कर ली जाए तो कुछ भी मुश्किल नहीं है। रोजा हमें यही सीख देता है। ताकि हम बुराईयों से खुद को रोक सके।