महाप्रभु बने प्रेरणा
सुदर्शन ने पुरी की सैंडआर्ट (रेत कला) को विश्व पटल पर पहुंचाकर देश का नाम रोशन किया। उनकी इस कला का कायल पूरा विश्व है। आज भी दुनिया भर के पर्यटक ओडिशा के समुद्र तट पर रेत की कृतियां उकेरने वाले इस कलाकार और उसकी कृतियों को देखने आते हैं। शायद ही किसी ने सोचा होगा कि समुद्र तटों पर बिखरी पड़ी रेत का इतना बेहतर इस्तेमाल भी हो सकता है कि दुनिया भर में इस कला की अलग पहचान बन जाए। रेत के माध्यम से भावनाओं की सशक्त अभिव्यक्ति का सफल प्रयास करने वाले सुदर्शन कहने को तो महाप्रभु जगन्नाथ की नगरी में रहते हैं और कहते हैं कि उन्हें सदैव महाप्रभु से रेत कला को दुनिया भर में पहुंचाने की प्रेरणा मिलती है।
विश्व में कहीं देखने को नहीें मिलता कला का ऐसा नमूना
अभिव्यक्ति का ऐसा उल्लेख दुनिया में और कहीं नहीं मिलता। मानवीय सभ्यता के लिए खतरा माने जाने वाले विषयों पर उनकी रेतकृति एक नया संदेश देती है। चाहे वह आतंकवाद हो या फिर जलवायु परिवर्तन के खतरे। आजकल सुदर्शन नयी पीढ़ी को सैंड आर्ट का हुनर सिखाते हैं ताकि उनके बाद की पीढ़ी इसे जिंदा रखे।
छोटी उम्र में पिता को खोया
सुदर्शन बताते हैं कि पिता के साये से छोटी सी उम्र में वंचित हो जाने के साथ ही बड़ी गरीबी में उनका जीवन बीत रहा था। सुकून पाने के लिए उन्होंने पुरी में समुद्र तट को उपयुक्त पाया। धीरे-धीरे समुद्री रेत को उन्होंने दोस्त बना लिया। गोल्डन सैंड (सुनहरी रेत) से भरपूर रेत में उन्हें जीवन का संदेश प्राप्त हुआ जिसे उन्होंने जीवंत बनाया। रेत जो बहुत आसानी से हाथ से फिसल जाती है उसे अभिव्यक्ति का माध्यम बनाकर मूर्त रूप देने में कामयाबी हासिल की। कालांतर पर बोलती हुई रेत कृतियों की वह आकर्षक रचना करने लगे। इसके लिए सुदर्शन को न केवल कड़ी मेहनत करनी पड़ी बल्कि दुनिया भर में कला की रेतीली विधा का लोहा मनवाने में भी महती भूमिका निभायी।
मिले कई पुरस्कार
कठिन परिश्रम एकाग्रता और श्रम साध्य कला की इस विधा को आज सुदर्शन ने भारत की पहचान बना दिया है। सरकारों चाहे केंद्र हों या राज्य ने सुदर्शन पटनायक का साथ दिया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उन्हें दिल्ली बुलाकर उनकी पीठ थपथपायी और गुजरात में इस कला को प्रचारित करने व रेत में इसे उकेरने का न्योता दिया। पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी पटनायक के प्रबल प्रशंसक हैं। पद्मश्री पुरस्कार मुखर्जी के हाथों ही उन्हें मिला।
कभी सोची थी जिंदगी खत्म करने की बात
किसी भी राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय घटना पर वह रेत कला के माध्यम से मानवीय संवेदनाएं उकेरने में वह सदैव आगे रहे। ताज्जुब तो यह कि यह कला न तो उन्हें विरासत में मिली और न ही उन्होंने कहीं से ट्रेनिंग ली। वह बताते हैं कि एक समय अमेरिका में होने वाली चैंपियनशिप में भाग लेने के लिए प्रवेश शुल्क के लिए वह पैसा नहीं जुटा सके थे। वह अवसाद में चले गए और ट्रेन के आगे कूदकर आत्महत्या तक करनी चाही पर यात्रियों ने उन्हें बचा लिया। ओडिशा के पुरी में अभावग्रस्त परिवार में 15 अप्रैल 1977 को जन्मे सुदर्शन पटनायक को भारत में रेत की कला का जनक माना जाता है।