हाथियों के भी मारे जाने की घटनाएं प्रकाश में आती रही हैं। मयूरभंज के सिमलीपाल टाइगर रिजर्व में 2010 में 14 हाथियों की मौत के रहस्य पर से परदा आज तक नहीं उठ सका। पहले भी मयूरभंज के एक गांव में झारखंड सीमा को पार कर करीब 70 हाथियों का दल ओडिशा में घुस आया था। वन विभाग के अफसर और कर्मी हाथियों को गांवों की तरफ आने से रोक नहीं पा रहे है। वन से आबादी वाले इलाकों की तरफ हाथियों के झुंड का घुसना कैसे रोका जाए यह बड़ा सवाल है। हांका लगाने के साथ ही गांव वाले देर शाम झाडिय़ों मे आग लगाकर हाथियों को भगाते हैं। कुलदिहा जंगल की ओर हाथियों का झुंड विचरण कहता रहता है।
ग्लोबल पोजीशनिंग सिस्टम और ट्रेकिंग टीम हाथियों के झुंड पर नजर रखे है। बताते हैं कि ये खानापानी की तलाश भटकते हुए गांवों की ओर आ जाते हैं। बताते हैं कि पिछले दस साल में सिर्फ झारखंड, ओडिशा और छत्तीसगढ़ में जंगली हाथी एक हज़ार लोगों को मार चुके हैं. इसी अवधि में सिर्फ झारखंड, ओडिशा और छत्तीसगढ़ में एक सौ सत्तर से ज्य़ादा हाथी भी मारे जा चुके हैं। वन्य जीव प्रेमी बताते हैं कि जंगलों और जंगलों के आसपास के इलाके इंसानों और जानवरों की रणभूमि में तब्दील हो चुके हैं। दोनों अपने-अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं। वन विभाग के प्रमुख अधिकारी का कहना है कि अतिक्रमण और जंगलों के सिकुडऩे की वजह से हालात और भी गंभीर होते जा रहे हैं।
पुराना है मानव-हाथी संघर्ष
ओडिशा में हाथियों और मनुष्यों के बीच संघर्ष भी पुराना है। जंगलों से भागकर गांवों पर हमला करने वाले हाथी कभी भारी पड़ जाते तो कभी गांव वाले। शिकारी भी इनके दांत आदि के चक्कर में घात लगाए बैठे रहते हैं और मौका मिलते ही गिरा लेते हैं। ताज्जुब तो यह कि ये घटना वन विभाग की जानकारी में होती रहती हैं। अप्रेल 2014 से लेकर ५ मार्च 2018 तक के वन विभाग के आंकड़े लें तो ओडिशा में इस दौरान 276 हाथी मारे जा चुके हैं। जबकि मनुष्यों के मारे जाने के आंकड़ें 319 हैं। यानी हाथी भारी पड़ते रहे। घायल मनुष्यों की संख्या 201 हैं। दोनों के बीच इस बीच टकराव 431 बार हुआ है। सबसे ज्यादा हाथी अप्रेल 2015 से मार्च 2016 के बीच 80 मारे गए थे। जबकि 79 मनुष्यों को हाथियों ने रौंदकर मार डाला था। कुल 37 मानव घायल हुए थे। टकराव की 100 घटनाएं हुई थी।