गुंडिचा मंदिर तक ले जाते हैं रथ
भगवान जगन्नाथ का जी की मूर्ति को उनके बड़े भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा की छोटी मूर्तियाँ को रथ में ले जाया जाता है। धूम-धाम से इस रथ यात्रा का आरंभ होता है। जगन्नाथ पुरी रथ यात्रा पर तीन देवताओं की यात्रा निकाली जाती है। इस अवसर पर जगन्नाथ मंदिर से तीनों देवताओं के सजाये गये रथ खिंचते हुए दो किलोमीटर की दूरी पर स्थित गुंडिचा मंदिर तक ले जाते हैं और नवें दिन इन्हें वापस लाया जाता है। इस अवसर पर सुभद्रा, बलराम और भगवान जगन्नाथ यानी श्री कृ्ष्ण का पूजन नौं दिनों तक किया जाता है।
45 फुट ऊंचा होता है रथ
जगन्नाथ जी का यह रथ 45 फुट ऊंचा होता है। भगवान जगन्नाथ का रथ सबसे अंत में होता है। और भगवान जगन्नाथ क्योकि भगवान श्री कृ्ष्ण के अवतार है, अतं: उन्हें पीतांबर अर्थात पीले रंगों से सजाया जाता है। पुरी यात्रा की ये मूर्तियां भारत के अन्य देवी-देवताओं कि तरह नहीं होती है। हर साल नया रथ बनाया जाता है। रथ यात्रा में सबसे आगे भाई बलराम का रथ होता है, जिसकी उंचाई 44 फुट उंची रखी जाती है। यह रथ नीले रंग का प्रमुखता के साथ प्रयोग करते हुए सजाया जाता है। इसके बाद बहन सुभद्रा का रथ 43 फुट उंचा होता है। इस रथ को काले रंग का प्रयोग करते हुए सजाया जाता है। इस रथ को सुबह से ही सारे नगर के मुख्य मार्गों पर घुमाया जाता है।
साधु संतों की भीड़ जुटने लगी
एक प्राचीन मान्यता के अनुसार इस स्थान पर आदि शंकराचार्य जी ने गोवर्धन पीठ स्थापित किया था। प्राचीन काल से ही पुरी संतों और महात्मा के कारण अपना धार्मिक व आध्यात्मिक महत्व रखता है। अनेक संत-महात्माओं के मठ यहां देखे जा सकते है। इन मठों में आजकल खासी रौनक है। साधु सन्यासी मठों में बहुतायत में देखे जा सकते हैं। जगन्नाथ पुरी के विषय में यह मान्यता है, कि त्रेता युग में रामेश्वर धाम पावनकारी अर्थात कल्याणकारी रहें, द्वापर युग में द्वारिका और कलियुग में जगन्नाथपुरी धाम ही कल्याणकारी है। पुरी भारत के प्रमुख चार धामों में से एक धाम है।
सात दिन बाद होती है वापसी
यात्रा के दूसरे दिन तीनों मूर्तियों को सात दिन तक यही गुंडिचा मंदिर में रखा जाता है और सातों दिन इन मूर्तियों का दर्शन करने वाले श्रद्वालुओं का जमावडा इस मंदिर में लगा रहता है। कडी धूप में भी लाखों की संख्या में भक्त मंदिर में दर्शन के लिये आते रहते है। प्रतिदिन भगवान को भोग लगने के बाद प्रसाद के रुप में गोपाल भोग सभी भक्तों में वितरीत किया जाता है। सात दिनों के बाद यात्रा की वापसी होती है। इस रथ यात्रा को बडी बडी रस्सियों से खींचते हुए ले जाया जाता है। यात्रा की वापसी भगवान जगन्नाथ की अपनी जन्म भूमि से वापसी कहलाती है। इसे बाहुडा कहा जाता है। इस रस्सी को खिंचने या हाथ लगाना अत्यंत शुभ माना जाता है।