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लोक के आलोक का बिछोह!

locationबीकानेरPublished: May 16, 2021 07:41:51 pm

Submitted by:

Atul Acharya

लोक के आलोक का बिछोह!

लोक के आलोक का बिछोह!

लोक के आलोक का बिछोह!

-डॉ. राजेश कुमार व्यास


उनका बिछोह को शब्दों से नहीं वर्णन किया जा सकता डॉ. श्रीलाल मोहता जी रिश्ते में मेरे मामाजी थे पर उनसे साहित्य, संस्कृति से जुड़ी निकटता अधिक थी। सदा ही उनसे बहुत प्यार, स्नेह मिला। बीकानेरे जब भी जाना होता, उनके सान्निध्य से संपन्न होता ही।…मोबाईल पर भी जब—तब लम्बी बातें उनसे होती रहती। अभी कुछ समय पहले ही तो वाट्सअप पर उन्होंने अज्ञेयजी और नाना जी डॉ. श्रीलाल मोहता की पुरानी तस्वीर भेजी थी। जयपुर जब भी आते, घर आते थे। पिछली दफा जब आए थे तो अपनी संपादित ‘संगीत : संस्कृति की प्रकृति’ भेंट कर गए थे। साहित्य और संस्कृति के संस्कारों की आरम्भिक नींव में उनका भी योग था। याद है, स्कूल में जब पढ़ता था तभी मोहता भवन में उन्होंने अज्ञेय जी के समग्र काव्य खंड की ‘सदानीरा’ मुझे पढ़ने के लिए सौंपी थी। आज भी ज़हन में वह दिन ताजा है। उन्होंने कहा था, ‘तुम्हारे लिए यह पढ़ना जरूरी है।’ मुझे लगता है—उनके सौंपे उस उपहार के बाद पढ़ने की मेरी रुचियाँ परिस्कृत हुई। मेरी नानी और डॉ. छगन मोहता की पत्नी सगी बहनें थी। मैं नानी को छोड़ने मोहता भवन प्राय: जाया करता था पर यह मेरी यह अल्प बुद्धि ही थी कि डॉ. छगन मोहता जी से सूझ की वह दृष्टि न ले सका, जो लेनी चाहिए थी। मुझे लगता है, रिश्तों से निकटता नहीं होती—ज्ञान हमें व्यक्ति के अधिक निकट ले जाता है, रिश्तों के भी। छगन मोहता जी उद्भट विद्वान थे। आनंदकुमार स्वामी पर पहले पहल विद्यानिवास मिश्र जी के लिखे ‘कुमारस्वामी की कला दृष्टि’ को पढ़ने के बाद ही कलाओं पर गहराई से अध्ययन की ओर प्रवृत्त हुआ था परन्तु डॉ. छगन मोहता के ‘कला एवं दर्शन’ को पढ़ने के बाद मेरी धारणा बदल गयी।आनंदकुमार स्वामी की कला दृष्टि की गहराई की समझ डॉ. छगन मोहता में जितनी थी, उतनी ओर किसी में मुझे नहीं लगी। एक दफा यह बात मैंने श्रीलाल मोहता जी को कही तो वह मंद मंद मुस्काने के अपने चिरपरिचित अंदाज में कहने लगे, भाईजी (अपने पिता को वही यही संबोधन देते थे) के पास बहुत कुछ था।
श्रीलाल मोहता जी के पास लोक से जुड़ा दिव्य आलोक ही नहीं था, कविता, संगीत, नृत्य और नाट्य की भी गहरी सूझ थी। मुकुन्द लाठ जी का व्याख्यान बीकानेर करवाने की उनकी बड़ी चाह थी। जयपुर एक बार आए तो मुझे यह दायित्व दिया कि उन्हें कैसे भी मनाकर तुम्हें व्याख्यान के लिए हां भरवानी है। मुकुन्दजी उस समय में एकांतप्रिय हो चले थे पर मेरी उनसे तब भी घर जाने पर खुब गप—शप होती थी। उन्होंने हां भरी और बाद में वह व्याख्यान हुआ। यूं उनसे बतियाना निरंतर होता था पर दूरदर्शन की राजस्थानी साहित्य पत्रिका ‘मरूधरा’ का जब संयोजन करता था तब मैंने उनसे लोक—आलोक पर बीकानेर से बुलाकर लंबा संवाद किया था। उनके पास बहुत कुछ महत्वपूर्ण था, बीकानेर की पाटा संस्कृति, कलाओं की भारतीय दृष्टि और लोक के आलोक से जुड़ा। क्या ही अच्छा होता, उस सबको हम दस्तावेजी रूप में भी उनसे संवाद के जरिए संग्रहित कर पाते!
बहरहाल, उनके नेह से सदा ही सिंचित होता रहा हूं। मुझे याद है, पर्यटन और संस्कृति पर मेरी पीएच.डी. में जब दो—तीन पूर्व पढ़ाए हुए गुरूओं ने शोध निदेशक बनने से मजबूरीवश इन्कार कर दिया था, उन्होंने आगे बढ़कर मदद की थी। उनके पास जब भी जाता संपन्न होता था। कॉलेज के दिनों में ही कभी उन्होंने मेरा सबसे पहला व्याख्यान लूणकरणसर में राजस्थन प्रौढ़ शिक्षण समिति के जरिए कराया था। बाद में राज्य संदर्भ केन्द्र और प्रौढ शिक्षण समिति के तत्वावधान में आयोजित एक लेखक शिविर में उन्होंने ही आमंत्रित कर बुलाया था। चार दिन मैंने वहां कुछ नहीं किया। उन्होंने मीठी झिड़की दी। याद है, उस समय बारिश हो रही थी। बोले, ‘इस पर ही कुछ लिख दो।’ मैंने उनके कहने से और कुछ सुझाए से ही प्रेरित होकर कुछ घंटो में ही छोटी कहानीनुमा नव साक्षरों की पुस्तक ‘ऐसे बरसते हैं बादल’ लिखी थी जो राज्य संदर्भ केन्द्र ने प्रकाशित की।
साहित्य अकादेमी पुरस्कृत ‘कविता देवै दीठ’ का लोकार्पण मेरी मां, पहली लेखन गुरू श्रीमती शांति व्यास ने किया और अध्यक्षता डॉ. श्रीलाल मोहता ने की थी। उनके पास संस्कृति और कलाओं से जुड़ी विराट दृष्टि थी। ऐसी जिससे निरंतर संपन्न हुआ जा सकता था। वह विरल संस्कृतिकर्मी—आयोजनधर्मी थे। मैं यह मानता हूं, बीकानेर में ‘प्रज्ञापरिवृत’ के जरिए उन्होंने जो आयोजन किए उनसे साहित्य, कलाओं की नई दृष्टि का भी शहर में सूत्रपात हुआ। उनके पास ढेर सारी योजनाएं थी, गहन ज्ञान था और उसका बहुत थोड़ा ही ‘निज आतम मंगलरूप सदा’, स्वीडन कवयित्री की कविताओं का ‘आरसी आगै हाथ पसार्या फुटरापौ’ अनुवाद ‘मरू सस्कृति कोश’, ‘लोक का आलोक’, ‘गणगौर गाथा’, ‘मथेरण कला और रंगो की कहानी : हरि महात्मा की जबानी’ आदि के जरिए हमलोगों के समक्ष आ पाया था। ‘परम्परा’ संस्था के जरिए उन्होंने महत्ती प्रकाशन
हमें दिए। मकरंद दवे की अनुवादित, प्रकाशित कृतियां मेरे जैसे पाठकों के लिए उनकी दी किसी धरोहर से कम नहीं है।
अभी कुछ समय पहले ही उन्होंने राजस्थानी की कुछ कविताएं हिंदी में अनुवादित कर भेजने का आग्रह किया था मैंने जब उन्हें भेज दी तो वह बहुत प्रसन्न हुए थे और आशीर्वाद दिया था। बीकानेर जब भी जाता था, उनसे मिलकर नहीं आता तो बहुत कुछ अधूरा अधूरा लगता था।नहीं सोचा था, यह अधूरापन अब जिन्दगीभर के लिए यूं भोगना पड़ेगा
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