सरगुजा-बिलासपुर संभागों की इन 5 लोकसभा सीटों से बहुत बड़े संदेश निकलते हैं। इनमें कुछ संदेश कांग्रेस के लिए हैं तो कुछ भाजपा के लिए। मसलन कांग्रेस के लिए तो यह बहुत साफ सा संदेश है कि देश के मामले में आपके राष्ट्रीय नेतृत्व को स्वीकारा नहीं जा रहा। राज्य की सरकारों के कामकाज का असर राज्य के ही चुनावों में होता है। मतदाता समझदार है। वह देश और प्रदेश में घालमेल नहीं कर रहा। कोरबा जैसी लगभग जीती हुई सीट कांग्रेस के लिए सांसे अटकाने वाली साबित हुई, इसकी वजह कोरबा से सरकार में बतौर मंत्री अपनी भूमिका पर विचार करने के लिए विवश करती है। लोकाचार, लोकमिलन और लोकशिष्टता के बिना सिर्फ अर्थ व्यवस्था से चुनावों में उलटफेर की गलतफहमियां भी टूटती हैं। कांग्रेस को इस बात पर पूरी तरह से विमर्श और आत्मचिंतन करना चाहिए कि आखिर वे किन बातों को नहीं देख पा रहे या नहीं देखना चाहते। विरोधी को कैंपेनर कहने, बड़ा सट्रेटेजिस्ट कहने, प्रोपगेंडाबाज कहने से काम न चलेगा। लोग समझदार हैं, विजन भी दिखाइए और वजन भी बताइए। यह संभव तभी है जब स्वाभाविक रूप से आपका लोक जुड़ाव हो। रणनीतिक स्तर पर मजबूती से कुछ नहीं होगा अगर फीडबैक सही नहीं आएगा। फीडबैक की बुनियाद पर ही विराट रणनीतियां खड़ी हो सकती हैं। धांय.धांय करती लालबत्तियों के जलसों और जुलूसों में खोने से नहीं। सतर्कता से राज्य चलाइए।
ये चुनाव भाजपा के लिए बड़ी सीख हैं। भाजपा ने एक बड़ा कदम उठाया था। केंद्रीय नेतृत्व ने एक ही दिन में 2018 के हारे हुए 75 विधायक, 2014 के जीते हुए 10 सांसद, 2018 के जीते हुए 15 विधायक समेत 100 चुनावी चेहरों को पटल से हटा दिया। महज 90 विधानसभा सीट, करीब सवा करोड़ वोटर और 11 लोकसभा सीटों वाले छोटे से राज्य में 100 चुनावी चेहरों को हटाना बड़ा खतरा था। इससे भी बड़ा जोखिम यह लिया कि रेणुका सिंह और बैदूराम को छोड़ दें तो शेष 9 ऐसे चेहरे थेए जिन्होंने स्वयं ने कभी ख्वाबों में भी नहीं सोचा था कि वे इतने जल्दी 2019 में ही लोकसभा जैसे चुनाव में प्रत्याशी हो सकेंगे। वो भी तब जबकि एक.एक सांसद कीमती हो। इस पर बेमन से स्थानीय नेतृत्व का चुनाव में जाना और अनचाहे जैसा काम करना। राज्य की नेतृत्व इकाई का दिखावानुमा सक्रिय होना, बड़ा चैलेंज था। नतीजे आए तो वही राज्य के पुराने मुखिया टीवी चैनलों पर अपना 11 दिसंबर से धारण किया मौनव्रत तोड़कर श्रेय स्पर्धा में सबसे आगे खड़े दिखे। यही संदेश दे रहे हैं यह चुनाव कि पार्टी को अब पूरी तरह से नई कर देना होगा। 30 से 50 वर्ष के बीच के स्थानीयों को भूमिकाओं में लाना होगा, फिर वह चाहे प्रदेश अध्यक्ष की हो, नेता प्रतिपक्ष की हो, संगठन के कोई अन्य महत्वपूर्ण पदों की ही क्यों न हो। भाजपा को ऐसा करना ही होगा, क्योंकि 2018 के चुनाव में किसी को जिताने की हवा नहीं थी, बल्कि हराने की थी। जब लोकसभा में विपरीत नतीजे आए हैं तो यह समझने की बात है कि लोगों में आक्रोश किसके खिलाफ था? ऐसी स्थिति में बस्तर से जीते दीपक बैज और दंतेवाड़ा के दिवंगत विधायक मंडावी की सीटों पर आगामी छह महीनों में उपचुनाव होंगे। इन उपचुनावों से पहले आपको टीम नई करनी है, नहीं तो लोग ये मान लेंगे कि आपकी सर्जिरियां दिखावे की हैं। उनके भाग्य में राज्य के वहीं घिसेपिटे, सवालों से दागदार, सवालों से भागते, कार्यकर्ताओं को मझधार में छोडऩे वाले चेहरे सदा.सदा के लिए हैं। यह सोच दृढ़ होते ही राज्य वापसी की संभावनाएं क्षीण होती चली जाएंगी। भाजपा जश्न तो मनाइए, लेकिन बी एलर्ट।