-यह मंदिर छत्तीसगढ़ राज्य द्वारा संरक्षित है।
-साल भर के अलावा नवरात्रि पर मुख्य उत्सव होता है।
-श्रद्धालुओं द्वारा हजारों की संख्या में मनोकामना ज्योति कलश प्राज्वलित किए जाते हैं।
-नवरात्रि पर की गई पूजा निष्फल नहीं जाती।
-इसके चारों ओर 18 इंच मोटा परकोटा है।
-अखंड 9 दिनों तक कलश जलते हैं।
-मंदिर सुबह6 बजे से रात बजे तक दर्शन के लिए खुला रहता है।
-दोपहर 12 बजे माता को भोग लगाया जाता है, जिससे आधे घंटे के लिए दर्शन रोक दिए जाते हैं।
-बिलासपुर से निजी वाहन व टैक्सी करके जा सकते हैं।
-राजा रत्नदेव प्रथम ने 1050 ईं में कराया था मंदिर का निर्माण।
-51 शक्तिपीठों में शामिल है मंदिर।
1045 ई में राजा रत्नदेव प्रथम मणिपुर गांव में रात्रि विश्राम के लिए रूके उन्होंने एक वट वृक्ष पर रात काटी। आधी रात जब राजा की आंखें खुली तब उन्होंने वट वृक्ष के नीचे अलौकिक प्रकाश देखा। उन्होंने देखा कि वहां महामाया देवी की सभा लगी हुई थी। इतना देखकर वे बेहोश हो गए। सुबह होने पर वे अपनी राजधानी तुम्मान खोल लौट गए। उन्होंने अब मणिपुर को अपनी राजधानी बनाने का निर्णय लिया। इसके बाद 1050 ई वे वहां महामाया देवी मंदिर का निर्माण कराया गया।
कहा जाता है कि सती की मृत्यू से व्यथित भगवान शिव उनके मृत शरीर को लेकर तांडव करते हुए ब्रम्हांड में भटकते रहे। इस समय माता के अंग जहां-जहां गिरे वहीं शक्तीपीठ बन गए। इन्हीं स्थानों को शक्तिपीठ में मान्यता मिली। महामाया मंदिर में माता का दाहिना हाथ गिरा था। भगवान शिव ने स्वयं आविर्भूत होकर उसे कौमारी शक्ति पीठ का नाम दिया था। इसलिए इस स्थल को माता के 51 शक्तिपीठों में शामिल किया गया। यहां सुबह से देर रात तक भक्तों की भीड़ लगी रहती है। माना जाता है कि नवरात्र में यहां की गई पूजा निष्फल नहीं जाती है।
नगर शैली में बने मंदिर का मंडप 16 स्तंभो पर टिका हुआ है। भव्य गर्भग्रह में मां महामाया की साढ़े तीन फीट ऊंची दुर्लभ प्रस्तर प्रतिमा स्थापित है। मान्यताओं के अनुसार मां की प्रतिमा के पृष्ठ भाग में मां सरस्वती की प्रतिमा है जो विलुप्त मानी जाती है। इसके चारों ओर 18 इंच मोटा परकोटा है।