सार्थक सिनेमा की मांग…
आजकल, किसी फिल्म का बजट उतना मायने नहीं रखता है। आप 200 करोड़ रुपएखर्च करते हैं या 2 करोड़ रुपए खर्च करते हैं, फिल्म देखने जाने वाले को इसमें कोईदिलचस्पी नहीं है। दर्शक सार्थक सिनेमा की मांग कर रहे हैं। प्यार-मोहब्बत की कहानियांअब पुरानी हो चुकी हैं, क्योंकि लोग जानते हैं कि इन फिल्मों की तरह जीवन 25 की उम्रके बाद खत्म नहीं होता है। आंखों देखी ने यह साबित किया है। मैं इस उम्र में भी मुख्यभूमिकाएं निभाने के लिए अमिताभ बच्चन का शुक्रगुजार हूं। अब फिल्में दिमाग से बनतीहैं, केवल पैसे से नहीं। फिर चाहे आप कपूर, खान या चोपड़ा हों, अगर कहानी दर्शकों केदिमाग पर सटीक असर छोडऩे में सक्षम नहीं है, तो आपकी फिल्म काम नहीं करेगी।
नायक पर है दबाव…
मल्टी-स्टारर फिल्मों में कहानी विभिन्न पात्रों पर आधारित होती है। हालांकि, ‘कड़वीहवा’ का नायक मैं हूं और फिल्म को आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी मेरे कंधों पर है। यह एकमात्र अंतर है। दो घंटों में आपको एक कहानी को प्रस्तुत करना है, जो दर्शकों को पैसावसूल महसूस हो, इसलिए इसके नायक को बहुत कुछ करना है और उस पर दबाव है।”
भाग्य ने दिया साथ…
भाग्य से दर्शकों ने मुख्यधारा व ऑफ-बीट फिल्मों दोनों में ही मेरे काम को पसंद किया है।मुझे भी दोनों में काम करना पसंद है। लेकिन मुख्यधारा की फिल्में मेरे लिए टी-20 मैचकी तरह होती हैं। वहीं, ऑफबीट एक टेस्ट मैच की तरह जहां मुझे एक पिच पर तीनदिनों तक रहना होता है।