अफगानिस्तान में किसी जमाने में सिर्फ भारतीय फिल्में मनोरंजन का माध्यम थीं। पहली अफगानी फिल्म ‘लव एंड फ्रेंडशिप’ 1946 में बनी। वहां की हुकूमत की तरफ से कायम की गई ‘अफगान फिल्म’ कंपनी की बदौलत फिल्में बनाने का सिलसिला अस्सी के दशक तक जोर-शोर से चला। तालिबान के 1996 में हुकूमत संभालने के बाद गाज या तो महिलाओं पर गिरी या सिनेमा पर। तालिबान ने फिल्म और टीवी देखने पर रोक लगाने के बाद कई सिनेमाघर तोड़ डाले। जो फिल्में उनके हाथ लगीं, उन्हें आग के हवाले कर दिया गया। भारत में पहली सवाक फिल्म ‘आलम आरा’ समेत शुरुआती दौर की कई फिल्मों के प्रिंट अगर देख-रेख के अभाव में आज उपलब्ध नहीं हैं, तो अफगानिस्तान में वहां की कई फिल्मों के प्रिंट तालिबान की आग ने गायब कर दिए। वही अफगानी फिल्में बची हैं, जिन्हें सुरंगों, तहखानों या सुदूर गोदामों में छिपा दिया गया था। खबर है कि इन फिल्मों को विदेशी विशेषज्ञों की मदद से डिजिटल में तब्दील किया जा रहा है।
तालिबान के हाथ से हुकूमत फिसलने के बाद अफगानी फिल्मों का सिलसिला धीरे-धीरे फिर रफ्तार पकड़ रहा है, लेकिन दिक्कत यह है कि तालिबान के दौर में वहां के ज्यादातर फिल्मकार देश छोड़कर चले गए थे। वे वापसी के मूड में नहीं हैं और विदेशों में ही अफगानी फिल्में बना रहे हैं। मसलन 2001 में अफगानिस्तान मूल के ईरानी फिल्मकार मोहसिन मखमलबफ की ‘कंधार’ ने अंतरराष्ट्रीय सुर्खियां बटोरी थीं। इस फिल्म के जरिए अफगानिस्तान ने पहली बार कान्स फिल्म समारोह में शिरकत की। इसके बाद सिद्दीक बर्मक की ‘ओसामा’ (2003) कान्स के अलावा लंदन फिल्म समारोह में भी दिखाई गई। विदेश में बनी अफगानी फिल्मों में ‘अल करीम’ (अमरीका), ‘वारिस’ (हॉलैंड), ‘किडनैपिंग’ (जर्मनी), ‘खाना बदोश’ (लंदन) और ‘ग्रिदामी’ (इटली) उल्लेखनीय हैं।
अफगानी सिनेमा के नुमाइंदे तालिबान के खौफ से पूरी तरह आजाद नहीं हुए हैं। वे पुरानी फिल्मों के डिजिटल प्रिंट दूसरे देशों के अपने दूतावासों में भेजने वाले हैं, ताकि आइंदा तालिबान गड़बड़ी करे तो फिल्में सुरक्षित रहें। आखिर ये देश के एक काल का दस्तावेज हैं।