ख्वाजा अहमद अब्बास की ‘सात हिन्दुस्तानी’ के क्रांतिकारी नौजवान कवि के किरदार में अमिताभ ठेठ उत्तर भारतीय लगे थे। उस दौर में कहा गया कि अगर उन्होंने खुद को उत्तर भारतीय की इमेज से आजाद नहीं किया, तो वे ज्यादा दूर तक नहीं जा पाएंगे। लेकिन इसी इमेज ने अमिताभ को बुलंदी अता की। बुलंदी भी ऐसी कि ‘न भूतो न भविष्यति’। निर्देशक रवि टंडन ने, जिन्होंने अमिताभ को लेकर ‘मजबूर’ (1974) बनाई, इस फिल्म की शूटिंग के दौरान ही कह दिया था कि अमिताभ के व्यक्तित्व में जो इलाहाबादी रंग-ढंग हैं, एक दिन वही उनकी सबसे बड़ी ताकत होंगे।
अमिताभ का ठेठ उत्तर भारतीय रूप चंद्रा बारोट की ‘डॉन’ में जादू बनकर उभरा। इस फिल्म में उनका डबल रोल था। उत्तर प्रदेश के भैया के रूप में ‘खइके पान बनारस वाला’ गीत पर उनका नृत्य, भंग की तरंग में पान खाने और थूकने का सलीका, हाव-भाव- यह सब इतना सहज तथा ताजगी लिए हुए था कि यह किरदार उनके डॉन के किरदार पर भारी पड़ा। यही जादू बाद में ‘सिलसिला’ के ‘रंग बरसे भीगे चुनर वाली’ में दोहराया गया।
अमिताभ बच्चन का बचपन इलाहाबाद में बीता और पढ़ाई-लिखाई नैनीताल में हुई। इसीलिए उनकी अदाकारी में उत्तर भारतीयता छन-छनकर महसूस होती है। उनकी जिस आवाज को ऑल इंडिया रेडियो ने प्रसारण के काबिल नहीं माना था, उसने कितनी फिल्मों में कैसे-कैसे जादू जगाए, सभी जानते हैं। ‘भुवन शोम’, ‘शतरंज के खिलाड़ी’, ‘लगान’, ‘जोधा अकबर’ समेत कई फिल्मों में यह आवाज कमेंट्री के लिए इस्तेमाल की गई। इस आवाज में ‘मेरे पास आओ’, ‘नीला आसमान सो गया’ और ‘एकला चालो रे’ जैसे कई गीत सुनकर भी उत्तर भारतीयता मुस्कुराती है।
अमिताभ चाहे जिस किरदार में पर्दे पर नजर आएं, उनकी अदाकारी में अवधी और भोजपुरी की मिली-जुली संस्कृति तथा हाव-भाव का असर खुद-ब-खुद छलक पड़ता है। ‘शराबी को शराबी नहीं तो क्या पुजारी कहोगे और गेहूं को गेहूं नहीं को क्या ज्वारी कहोगे’ (शराबी) जैसे आम संवाद भी उनकी अदायगी से खास हो जाते हैं। वे 11 अक्टूबर को 78 साल के हो रहे हैं। मनोरंजन की दुनिया में आज भी वे जहां खड़े होते हैं, लाइन वहीं से शुरू होती है।