फिल्मकार बासु चटर्जी ( Basu Chatterjee ) के सिनेमाई गुणों की चर्चा के दौरान कुछ बातें कई बार (या बार-बार) दोहराई जाती रहीं। यह कि उन्होंने मध्यम वर्ग को ध्यान में रखकर घरेलू मनोरंजन वाली फिल्में बनाईं, उनकी फिल्मों में प्रेम और हास्य का अच्छा तालमेल होता था या उन्होंने कुछ विदेशी फिल्मों का बड़ी सूझ-बूझ से देशी नक्शा तैयार किया। उनके इस महत्वपूर्ण योगदान की तारीफ में कंजूसी बरती जाती रही कि वे साहित्य और सिनेमा के बीच भरोसेमंद सेतु भी थे। उन्होंने हिन्दी और बांग्ला के कई नामी रचनाकारों की कहानियों को किताबों से निकाल कर सेल्यूलाइड पर इस खूबसूरती से सजाया कि ये जन-जन तक पहुंच गईं। इत्तफाक देखिए कि 1969 में जब बासु चटर्जी की पहली फिल्म ‘सारा आकाश’ सिनेमाघरों में पहुंची, उसी साल मृणाल सेन की ‘भुवन शोम’ और मणि कौल की ‘उसकी रोटी’ भी दर्शकों के बीच आईं। सिनेमा की नई लहर वाली ये तीनों फिल्में साहित्यिक कृतियों पर आधारित थीं। ‘भुवन शोम’ का आधार बांग्ला लेखक बलाई चंद मुखोपाध्याय की कहानी थी तो ‘उसकी रोटी’ मोहन राकेश के उपन्यास पर बनी थी।
‘सारा आकाश'( Sara Akash ) राजेन्द्र यादव के उपन्यास पर आधारित थी। इसमें आगरा के एक संयुक्त परिवार की कहानी है। नायक (राकेश पांडे) परिवार का सबसे छोटा सदस्य है। वह परिवार की पसंद की लड़की (मधु चक्रवर्ती) से शादी तो कर लेता है, लेकिन बाद में दोनों पति-पत्नी को लगता है कि वे एक-दूसरे के लिए नहीं बने हैं। इस ब्लैक एंड व्हाइट फिल्म में निर्देशक मणि कौल ने भी एक्टिंग (शायद पहली और आखिरी बार) की थी। मणि कौल के बारे में कहा जाता है कि उनका सिनेमा आपके पास नहीं आता, आपको उसके पास जाना होता है। इसके विपरीत बासु चटर्जी का सिनेमा ‘मेरे पास आओ मेरे दोस्तों, एक किस्सा सुनाऊं’ की मुद्रा वाला है। ‘सारा आकाश’ की नाकामी के बाद वे समझ गए थे कि दर्शकों को पास बुलाना है तो उनकी रुचियों के हिसाब से फिल्में बनानी होंगी। अच्छी कहानियों से उनकी रुचियों को धीरे-धीरे परिष्कृत भी किया जा सकता है।
बासु चटर्जी ने मन्नू भंडारी की कहानी ‘ये सच है’ पर ‘रजनीगंधा’ ( Rajnigandha ) बनाई तो ‘चितचोर’ ( Chitchor ) बांग्ला लेखक सुबोध घोष की कहानी ‘चितचकोर’ पर आधारित थी। सालों बाद सूरज बडज़ात्या ने ‘चितचोर’ की कहानी ‘मैं प्रेम की दीवानी हूं’ (ऋतिक रोशन, करीना कपूर, अभिषेक बच्चन) में दोहराई, लेकिन इसमें मूल फिल्म वाली तासीर नहीं आ पाई। साहित्यकारों के बीच बासु दा के रुतबे को इसी से जाना जा सकता है कि फिल्म वालों की धज्जियां उड़ाने वाले दिग्गज व्यंग्यकार शरद जोशी उनकी ‘छोटी-सी बात’ के संवाद लिखने का प्रस्ताव खारिज नहीं कर सके।