छत्तीसगढ़ के छोटे-से शहर में बिल्लू ने जब यह दुकान खोली थी तो यह ग्राहकों के लिए तरसती थी, क्योंकि तब वह लड़की उसकी दुकान के पास वाले मकान में रहने नहीं आई थी। वह आई तो बिल्लू की दुकान पर बहार आ गई। जब सभी लड़की को लेकर पागल हैं तो बिल्लू महाशय कैसे पीछे रहते। वह अपने कंधे पर लड़की के नाम का टैटू बनवा लेता है, पेड़ों पर उसका नाम लिखता है, आते-जाते उसे घूरता है और लड़की भले उसकी तरफ न देखे, वह सपनों में उसे साइकिल पर बैठाकर डोलता रहता है। हद तो यह है कि लड़की जिस स्कूल में पढ़ती है, वहां के मर्द भी उस पर फिदा हैं। महिलाओं को लेकर छोटे शहरों के मर्दों की कुंठाओं की यह फिल्म अच्छी खबर लेती है, लेकिन कई घटनाएं इतनी बचकाना हैं कि एक अच्छी फिल्म की संभावनाओं पर पानी फिर जाता है।
पूरी फिल्म में समझ नहीं आता कि निर्देशक अपूर्व धर बडग़ैयां लम्पट मर्दों के खिलाफ माहौल बनाना चाहते हैं या इसी तरह के दर्शक वर्ग को मजे लेने का मौका देना चाहते हैं। जो भी मर्द पर्दे पर आता है, वह लड़की के मकान की तरफ घूरना शुरू कर देता है- चाहे वह विधायक का बेटा हो, कारोबारी का या अफसर का। सभी लार टपका रहे हैं और फिल्म की कहानी कीचड़ होती जा रही है। जाने छत्तीसगढ़ का यह कौन-सा शहर है, जहां लड़कियों का इतना अकाल है कि एक लड़की के आते ही वहां के मर्दों के लिए ‘चमन’ में ‘बहार’ आ जाती है। यह आलम तो तब है, जब लड़की पूरी फिल्म में एक जुमला तक नहीं बोलती। अगर बोलती तो प्रेमियों की पलटन जाने और क्या-क्या कौतुक करती। गनीमत है कि ‘डर’ और ‘कबीर सिंह’ की तरह एकतरफा प्रेम का पागलपन यहां खतरनाक मोड़ नहीं लेता। प्रेमियों को ‘अंगूर खट्टे हैं’ का एहसास दिलाकर फिल्म क्लाईमैक्स का रास्ता पकड़ती है।
लल्लू टाइप के पनवाड़ी बिल्लू के किरदार में जीतेंद्र कुमार (शुभ मंगल ज्यादा सावधान, पंचायत) का काम ठीक-ठाक है। रितिका को स्कूटी पर घर से स्कूल के बीच चक्कर काटने से ज्यादा कुछ करना नहीं था। पटकथा बहकी-बहकी-सी है। अच्छा हुआ कि ‘चमन बहार’ ओटीटी प्लेटफॉर्म पर आ गई। सिनेमाघरों में इस तरह की फिल्मों के लिए बहार कम ही आती है।