जबसे भारत में ओटीटी कंपनियों ने हिन्दी कार्यक्रमों का प्रसारण शुरू किया है, इस तरह के विवाद समय-समय पर उठते रहे हैं। पिछले महीने नेटफ्लिक्स की वेब सीरीज ‘हंसमुख’ को लेकर वकीलों की भृकुटी तन गई थीं। उनकी शिकायत थी कि इसमें उनकी इमेज बिगाडऩे की कोशिश की गई। इससे पहले मनोज वाजपेयी की वेब सीरीज ‘द फैमिली मैन’ (अमेजन प्राइम), सैफ अली और नवाजुद्दीन सिद्दीकी की ‘सेक्रेड गेम्स’ (नेटफ्लिक्स), मोहित रैना की ‘भौकाल’ (मेक्स प्लेयर) वगैरह पर भी हंगामा खड़ा हो चुका है। ‘सेक्रेड गेम्स’ तो कई आंखों की किरकिरी बनी, क्योंकि इसमें अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर कई दृश्यों में हद लांघी गई और पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के लिए अभद्र भाषा का इस्तेमाल किया गया।
दरअसल, ओटीटी कंपनियों के लिए उस तरह का कोई सरकारी निगरानी तंत्र नहीं है, जैसा फिल्मों और टीवी के लिए है। यह हैरानी की बात है कि किसी फिल्म को सिनेमाघरों में पहुंचने से पहले सेंसर बोर्ड के स्कैनर से गुजरना पड़ता है, जबकि ओटीटी कंपनियां अपनी मर्जी से कुछ भी दिखा सकती हैं। ‘सेक्रेड गेम्स’ की कुछ कडियां निर्देशित करने वाले फिल्मकार अनुराग कश्यप ने हाल ही कहा था कि सामाजिक-राजनीतिक कंटेट के मामले में फिल्मों के मुकाबले ओटीटी प्लेटफॉर्म पर वे ज्यादा आजादी महसूस करते हैं।
बेशक अभिव्यक्ति की आजादी का हर मोर्चे पर सम्मान किया जाना चाहिए, लेकिन यह ध्यान भी रखा जाना चाहिए कि आपकी आजादी किसी दूसरे की आजादी या भावनाओं का हनन तो नहीं कर रही है। फिर समझदारी यही नहीं है कि क्या कहा जाए, इससे भी बड़ी समझदारी यह है कि क्या नहीं कहा जाए। ओटीटी कंपनियों के ज्यादातर कार्यक्रमों में इसी समझदारी की कमी अखरती है। जो मन में आया, वह दिखाया और कहा जा रहा है। कई वेब सीरीज में हिंसा और अश्लीलता का अतिरेक है तो अपशब्दों का इतना ज्यादा इस्तेमाल किया जा रहा है कि शराफत पानी-पानी हो जाए। भाषा के सारे संस्कार जैसे ताक में रख दिए गए हों। तर्क दिया जा सकता है कि भारत के आम लोग इसी तरह बोलते हैं। आम लोग तो जाने क्या-क्या बोलते और करते हैं, क्या आप वह सब ग्लेमर का तड़का लगाकर सारी दुनिया को दिखाएंगे?
इसी साल मार्च में सूचना-प्रसारण मंत्रालय ने जब वेब कंटेट बनाने और दिखाने वालों के साथ चर्चा की थी तो लगा था कि इंटरनेट कंटेट प्रोवाइडर्स को भी नियमों में बांधा जाएगा, लेकिन इस दिशा में अब तक कोई कदम नहीं उठाया गया। ओटीटी कंपनियों को सेल्फ सेंसरशिप की जिम्मेदारी देना शेर को बकरियों के झुंड की निगरानी सौंपने जैसा है। सरकार जब तक कड़े नियम नहीं बनाएगी, ओटीटी कंपनियों पर अंकुश दूर की कौड़ी है।