बच्चों के लिए फिल्म बनाना बच्चों का खेल नहीं है। बाल मनोविज्ञान की गहन जानकारी के साथ-साथ वह समझ-बूझ भी जरूरी है, जिसके सहारे फिल्म बच्चों की कसौटी पर खरी उतरे। दुनिया में सबसे ज्यादा फिल्में बनाने वाले देश में बच्चों के लिए सलीकेदार फिल्मों का अभाव चिंता की बात है। सरकार ने देश के भावी नागरिकों को शिक्षाप्रद मनोरंजन देने के मकसद से 1955 में जो बाल फिल्म सोसायटी बनाई थी, वह फिल्में तो बनाती है, लेकिन उसकी रफ्तार बेहद सुस्त है। पिछले 65 साल में उसने करीब 250 फिल्में बनाईं। यानी औसतन हर साल चार फिल्में भी नहीं। जो देश हर साल 20 भाषाओं में डेढ़ हजार से ज्यादा फिल्में बनाता हो, वहां बच्चों के लिए 10-12 फिल्में बनाना नामुमकिन तो कतई नहीं है।
देश की आबादी का एक तिहाई हिस्सा बच्चों का है, इसलिए बच्चों के लिए फिल्में बनाना कारोबार के लिहाज से घाटे का सौदा नहीं माना जा सकता। यह ‘अंजलि’, ‘रॉकफोर्ड’, ‘तारे जमीन पर’, ‘स्टेनली का डिब्बा’, ‘ब्ल्यू अम्ब्रेला’, ‘मकड़ी’, ‘आई एम कलाम’, ‘चिल्लर पार्टी’ और ‘हवा हवाई’ जैसी कई फिल्मों से साबित हो गया है। एक सर्वे के मुताबिक टीवी देखने वाले दर्शकों में 50 फीसदी 14 साल से कम आयु वर्ग के हैं। जाहिर है, बच्चों के लिए फिल्मों का अच्छा-खासा बाजार मौजूद है। ‘दंगल’ और ‘छिछोरे’ के निर्देशक नीतेश तिवारी की ‘चिल्लर पार्टी’ बच्चों के साथ-साथ बड़ों को भी पसंद आई थी। इरादे नेक हों तो अनेक रास्ते खुद-ब-खुद खुल जाते हैं।