सिनेमा अपनी रसद समाज से हासिल करता है। भारतीय समाज में गोरे रंग के प्रति किस कोण तक झुकाव रहा है, सब जानते हैं। एक दौर था, जब वैवाहिक विज्ञापनों की तयशुदा शब्दावली थी- ‘गोर वर्ण, सुंदर, सुशील, शिक्षित, गृह कार्यों में दक्ष।’ जो समाज काली माता को पूजता है, विडम्बना है कि काले रंग से बिदकता है। गोरेपन पर समाज की सोच फिल्मों में इस रंग के महिमा मंडन का आधार बनी। फिल्मी गानों का यह स्वयंभू सिद्धांत रहा है कि अगर नायिका है तो वह गोरी ही होगी। ‘गोरे-गोरे ओ बांके छोरे’, ‘गोरे-गोरे चांद-से मुख पे काली-काली आंखें हैं’, ‘गोरी के हाथ में चांदी का छल्ला’, ‘गोरी तेरा गांव बड़ा प्यारा’ से लेकर ‘गोरी हैं कलाइयां’ और ‘चिट्टियां कलाइयां वे’ तक गानों में गोरा रंग छाया हुआ है। ‘गोरी’ तथा ‘गाय और गोरी’ नाम से फिल्में भी बन चुकी हैं। ‘हम काले हैं तो क्या हुआ दिल वाले हैं’ जैसे इक्का-दुक्का गाने हैं भी तो इनका इस्तेमाल फिल्म में हास्य पैदा करने के लिए किया गया। संजीव कुमार की ‘अपने रंग हजार’ के ‘मेरी काली-कलूटी के नखरे बड़े’ ने भी काले रंग का उपहास उड़ाया।
नूतन की ‘बंदिनी’ में ‘मोरा गोरा अंग लइले, मोहे श्याम रंग दइदे’ भी एक तरह से पुष्टि कर रहा है कि नायिका गोरी है। राज कपूर की ‘सत्यम् शिवम् सुंदरम्’ में पं. नरेंद्र शर्मा ने जरूर सात्विक, सौम्य और सलोना गीत रचा, जो काले-गोरे के भेद के खिलाफ अलग अभिव्यक्ति है। यह गीत सवाल से शुरू होता है- ‘यशोमती मैया से बोले नंदलाला, राधा क्यों गोरी, मैं क्यों काला।’ अगली पंक्तियों में जवाब है- ‘बोली मुस्काती मैया, ललन को बताया/ कारी अंधियारी आधी रात में तू आया/लाडला कन्हैया मेरा काली कमली वाला/ इसीलिए काला।’ लोगों ने इस गाने को पसंद तो खूब किया, इससे सबक ग्रहण नहीं किया।
बॉलीवुड दावा करता है कि वह रंगभेद से दूर है, जबकि हकीकत यह है कि यहां गोरे रंग को हॉलीवुड से ज्यादा तरजीह दी जाती है। रेखा, स्मिता पाटिल, नंदिता दास और बिपाशा बसु जैसी चंद अभिनेत्रियां अपवाद हैं। वर्ना बॉलीवुड में अभिनेत्रियों के लिए पैमाने तय हैं- गोरा रंग, अच्छी लम्बाई और छरहरी काया। हॉलीवुड में अफ्रीका मूल के अनगिनत कलाकार न सिर्फ अहम किरदार अदा कर रहे हैं, बल्कि इनमें से कई सितारा हैसियत रखते हैं।