बेशक नई फिल्म सिटी से फिल्म और टीवी जगत के लिए संभावनाओं के नए दरवाजे खुलेंगे, लेकिन फिलहाल यह निष्कर्ष नहीं निकाला जाना चाहिए कि हिन्दी फिल्म इंडस्ट्री मुम्बई से शिफ्ट होने वाली है या इस इंडस्ट्री को उन समस्याओं से निजात मिल जाएगी, जो कई साल से कुंडली जमाए बैठी हैं। सबसे बड़ी समस्या लगातार बढ़ते घाटे की है। घाटे की वजह से ही मायानगरी में बॉम्बे टाकीज, राजकमल कलामंदिर, रंजीत मूवीटोन और वाडिया मूवीटोन जैसे प्रमुख स्टूडियो बंद हो चुके हैं। कभी चैम्बूर में राज कपूर के आर.के. स्टूडियो का भी बड़ा नाम था। ‘आवारा’ के बहुचर्चित स्वप्न दृश्य गीत ‘घर आया मेरा परदेसी’ के अलावा ‘प्यार हुआ इकरार हुआ है’ (श्री 420) और ‘ये गलियां ये चौबारा’ (प्रेम रोग) यहीं फिल्माए गए थे। तीन साल पहले आग लगने से यह जर्जर हो चुका था। अपने पिता की इस विरासत को सहेजने के बजाय उनके बेटों ने इसे 2018 में एक बड़े बिल्डर ग्रुप को बेच दिया। वहां अब रिहायशी कॉम्प्लैक्स खड़ा हो चुका है। स्टूडियो बिकने के बाद ऋषि कपूर ने कहा था- ‘यह परिवार के लिए सफेद हाथी बन गया था। इसे दोबारा खड़ा करने में कोई तुक नहीं थी, क्योंकि यह पहले भी भारी घाटे में था।’ राज कपूर की निर्माण संस्था आर.के. फिल्म्स ने ‘आ अब लौट चलें’ के बाद 21 साल से कोई फिल्म नहीं बनाई है।
फिल्म इंडस्ट्री पर माफिया के दखल, नाजायज वसूली, नायिकाओं के शोषण, भाई-भतीजावाद और ड्रग्स के इस्तेमाल को लेकर बदनामी के छींटे पड़ते रहते हैं। यह बुराइयां नई फिल्म सिटी तक नहीं पहुंचेंगी, इसकी कोई गारंटी नहीं है। उर्दू लेखक गुलाम अब्बास खान की काफी पुरानी कहानी ‘आनंदी’ का सार यह है कि एक शहर के तथाकथित शरीफ लोगों को उस बदनाम बस्ती से कई शिकायतें थीं, जहां गणिकाएं रहती थीं। उनका कहना था कि उस बस्ती से बहू-बेटियों का गुजरना दूभर हो गया है। दबाव में आकर शहरी निकाय गणिकाओं को शहर से दूर सुनसान इलाके में बसाने का बंदोबस्त कर देता है। कुछ समय बाद पता चलता है कि वह सुनसान इलाका कई बस्तियों से आबाद हो चुका है। यानी शहर से दूर एक छोटा शहर और बस गया। चरित्र और चाल बदले बगैर फिल्म वाले अगर जगह बदलते भी हैं तो बुराइयां ‘तू जहां-जहां चलेगा, मेरा साया साथ होगा’ की तर्ज पर वहां भी पहुंच जाएंगी।