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हिन्दी फिल्म जगत के युगपुरूष थे महबूब खान

हिन्दी सिनेमा जगत के युगपुरूष महबूब खान को एक ऎसी शख्सियत के तौर पर याद किया जाता है जिन्होंने दर्शकों को लगभग तीन दशक तक क्लासिक फिल्मों का तोहफा दिया

May 27, 2015 / 03:39 pm

सुधा वर्मा

mahboob khan

हिन्दी सिनेमा जगत के युगपुरूष महबूब खान को एक ऎसी शख्सियत के तौर पर याद किया जाता है जिन्होंने दर्शकों को लगभग तीन दशक तक क्लासिक फिल्मों का तोहफा दिया। कम ही लोगों को पता होगा कि भारत की पहली बोलती (सावक) फिल्म आलम आरा के लिये महबूब खान का अभिनेता के रूप में चयन किया गया था लेकिन फिल्म निर्माण के समय आर्देशिर ईरानी ने महसूस किया कि फिल्म की सफलता के लिए नये कलाकार को मौका देने के बजाय किसी स्थापित अभिनेता को यह भूमिका देना सही रहेगा। बाद में उन्होंने महबूब खान की जगह मास्टर विटल को इस फिल्म में काम करने का अवसर दिया।

महबूब खान (वास्तविक नाम रमजान खान) का जन्म 1906 में गुजरात के बिलमिरिया में हुआ था। वह युवावस्था में घर से भागकर मुंबई आ गये और एक स्टूडियों में काम करने लगे। उन्होंने अपने सिने करियर की शुरूआत 1927 में प्रदर्शित फिल्म (अलीबाबा चालीस चोर) से अभिनेता के रूप में की। इस फिल्म में उन्होंने चालीस चोरों में से एक चोर की भूमिका निभायी थी। इसके बाद महबूब खान सागर मूवीटोन से जुड़ गये और कई फिल्मों में सहायक अभिनेता के रूप में काम किया। वर्ष 1935 में उन्हें जजमेंट ऑफ अल्लाह फिल्म के निर्देशन का मौका मिला। अरब और रोम के बीच युद्ध की पृष्ठभूमि पर आधारित यह फिल्म दर्शकों को काफी पसंद आई। महबूब खान को 1936 में (मनमोहन) और 1937 में (जागीरदार) फिल्म को निर्देशित करने का मौका मिला लेकिन ये दोनों फिल्में टिकट खिड़की पर कुछ खास कमाल नहीं दिखा सकीं। वर्ष 1937 में उनकी (एक ही रास्ता) प्रदर्शित हुयी। सामाजिक पृष्ठभूमि पर बनी यह फिल्म दर्शकों को काफी पसंद आई। इस फिल्म की सफलता के बाद वह निर्देशक के रूप में अपनी पहचान बनाने में कामयाब हो गये।

वर्ष 1939 में द्वितीय विश्वयुद्ध के कारण फिल्म इंडस्ट्री को काफी आर्थिक नुकसान का सामना करना पड़ा। इस दौरान सागर मूवीटोन की आर्थिक स्थिति काफी कमजोर हो गयी और वह बंद हो गयी। इसके बाद महबूब खान अपने सहयोगियो के साथ नेशनल स्टूडियो चले गये। जहां उन्होंने 1940 में औरत, 1941 में बहन और 1942 में रोटी जैसी फिल्मों का निर्देशन किया। कुछ समय तक नेशनल स्टूडियो में काम करने के बाद महबूब खान को महसूस हुआ कि उनकी विचारधारा और कंपनी की विचारधारा से अलग है। इसे देखते हुये उन्होंने नेशनल स्टूडियो को अलविदा कह दिया और महबूब खान प्रोडक्शन लिमिटेड की स्थापना की। जिसके बैनर तले उन्होंने साल 1943 में नजमा, तकदीर और 1945 में हूमायूं फिल्मों का निर्माण किया। वर्ष 1946 में प्रदर्शित फिल्म (अनमोल घड़ी) महबूब खान की सुपरहिट फिल्मों में शुमार की जाती है। इस फिल्म से जुड़ा रोचक तथ्य यह है कि महबूब खान फिल्म को संगीतबद्ध बनाना चाहते थे। इसी उद्देश्य से उन्होंने नूरजहां, सुरैय्या और अभिनेता सुरेन्द्र का चयन किया जो अभिनय के साथ ही गीत गाने में भी सक्षम थे।

फिल्म की सफलता से महबूब खान का निर्णय सही साबित हुआ। महान संगीतकार नौशाद के निर्देशन में नूरजहां के गाए गीत “आवाज दे कहां है”, “आजा मेरी बर्बाद मोहब्बत के सहारे”, और “जवां है मोहब्बत” श्रोताओं के बीच आज भी लोकप्रिय है। वर्ष 1949 में प्रदर्शित फिल्म “अंदाज” महबूब खान की महत्वपूर्ण फिल्मों में शामिल है। प्रेम त्रिकोण पर बनी दिलीप कुमार, राज कपूर और नर्गिस अभिनीत यह फिल्म क्लासिक फिल्मों में शुमार की जाती है। इस फिल्म में दिलीप कुमार और राज कपूर ने पहली और आखिरी बार एक साथ काम किया था। वर्ष 1952 में प्रदर्शित फिल्म “आन” महबूब खान की एक और महत्वपूर्ण फिल्म साबित हुयी। इस फिल्म की खास बात यह थी कि यह हिंदुस्तान में बनी पहली टेक्नीकलर फिल्म थी और इसे काफी खर्च के साथ बृहत पैमाने पर बनाया गया था। दिलीप कुमार, प्रेमनाथ और नादिरा की मुख्य भूमिका वाली इस फिल्म से जुड़ा एक रोचक तथ्य यह भी है कि भारत में बनी यह पहली फिल्म थी जो पूरे विश्व में एक साथ प्रदर्शित की गयी। फिल्म “आन” की सफलता के बाद महबूब खान ने “अमर” फिल्म का निर्माण किया। बलात्कार जैसे संवेदनशील विषय बनी इस फिल्म में दिलीप कुमार, मधुबाला और निम्मी ने मुख्य निभाई। हालंकि फिल्म व्यावसायिक तौर पर सफल नहीं हुयी लेकिन महबूब खान इसे अपनी एक महत्वपूर्ण फिल्म मानते थे। वर्ष 1957 में प्रदर्शित फिल्म “मदर इंडिया” महबूब खान की सर्वाधिक सफल फिल्मों में शुमार की जाती है।

महबूब खान ने मदर इंडिया से पहले भी इसी कहानी पर 1939 मे औरत फिल्म का निर्माण किया था और वह इस फिल्म का नाम भी औरत ही रखना चाहते थे लेकिन नर्गिस के कहने पर उन्होंने इसका “मदर इंडिया” जैसा विशुद्व अंग्रेजी नाम रखा। फिल्म की सफलता से उनका यह सुझाव सही साबित हुआ। वर्ष 1962 में प्रदर्शित फिल्म “सन ऑफ इंडिया” महबूब खान के सिने करियर की अंतिम फिल्म साबित हुयी। बड़े बजट से बनी यह फिल्म टिकट खिड़की पर कामयाब नही हो सकी। हांलाकि नौशाद के संगीतबद्ध फिल्म के गीत “नन्हा मुन्ना राही हूं” और “तुझे दिल ढूंढ रहा है” श्रोताओं द्वारा आज भी तन्मयता के साथ सुने जाते है। अपने जीवन के आखिरी दौर में महबूब खान 16वीं शताब्दी की कवयित्री हब्बा खातून की जिंदगी पर एक फिल्म बनाना चाहते थे लेकिन उनका यह ख्वाब अधूरा ही रह गया। अपनी फिल्मों से दर्शकों के बीच खास पहचान बनाने वाले यह महान फिल्मकार 28 मई 1964 को इस दुनिया से रूखसत हो गया।

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