संकट से गुजर रहे साठ साल पुराने इस संस्थान में ऑक्सीजन फूंकने के इरादे से सरकार ने फिल्मकार शेखर कपूर ( Shekhar Kapur ) को इसका अध्यक्ष बनाया है। नब्बे के दशक से यहां बदइंतजामी का जो सिलसिला शुरू हुआ था, उसने समस्याओं का पहाड़ खड़ा कर दिया है। हालात 2001 से ज्यादा बिगड़े, जब विनोद खन्ना संस्थान के अध्यक्ष थे। उनके बाद सईद अख्तर मिर्जा, गजेंद्र चौहान, अनुपम खेर और बी.पी. सिंह के कार्यकाल में भी ‘मर्ज बढ़ता गया, ज्यों-ज्यों दवा की’ वाला आलम रहा। मूडी शेखर कपूर के लिए समस्याओं को समतल कर संस्थान को पटरी पर लाना सबसे बड़ी चुनौती है। यहां उससे भी ज्यादा समझ-बूझ और ऊर्जा की दरकार होगी, जो उन्होंने ‘मासूम’, ‘मि. इंडिया’, ‘बैंडिट क्वीन’ बनाने में लगाई थी।
शेखर कपूर को उन कारणों को भी टटोलना होगा कि जिस संस्थान में कभी सत्यजीत रे, ऋत्विक घटक, डेविड लीन, मणि कौल, बलराज साहनी, ए.के. हंगल और इस्तवां गाल जैसी हस्तियां पढ़ाने आती थीं, वह अब प्राध्यापकों का अभाव क्यों झेल रहा है। विदेशी छोडि़ए, देशी फिल्मकार भी एफटीआईआई से कन्नी काटने लगे हैं। इस तरह के आरोप कई बार लग चुके हैं कि जिन लोगों को संस्थान के संचालन की जिम्मेदारी सौंपी जाती है, उन्हें फिल्म और टीवी का कोई इल्म नहीं होता। कई साल पहले उस समय काफी असंतोष फैला था, जब यह फरमान जारी किया गया कि हर विद्यार्थी के लिए सभी विषयों का अध्ययन करना जरूरी है। यानी जो निर्देशन का कोर्स कर रहा है, वह एक्टिंग, संपादन, फोटोग्राफी, साउंड रेकॉर्डिंग आदि भी सीखे। कई छात्र-छात्राओं की अपने विषय के अलावा दूसरे विषयों में कोई दिलचस्पी नहीं थी। एक्टिंग सीखने वाले ज्यादा थे। उन्होंने फरमान का विरोध किया तो कुछ साल के लिए एक्टिंग कोर्स ही बंद कर दिया गया।
एफटीआईआई में सुविधाओं की कोई कमी नहीं है। काफी बड़ा फिल्म संग्रहालय है, लाइब्रेरी में सिनेमा पर किताबों का भंडार है, थिएटर, खेल का बड़ा मैदान, स्विमिंग पूल, जिम वगैरह भी हैं। बस, एक कुशल प्रशासक चाहिए, जो नौकरशाही पर लगाम कसे और इस संस्थान के अच्छे दिन लौटा लाए। शहरयार ने फरमाया है- ‘कहिए तो आसमां को जमीं पर उतार लाएं/ मुश्किल नहीं है कुछ भी अगर ठान लीजिए।’