पश्चिमी देशों में चार्ली चैप्लिन, फ्रैंक सिनात्रा, एल्विस प्रीसले, अर्नेस्ट हेमिंग्वे, एलिजाबेथ टेलर, मार्क ट्वैन, हेनरी फोर्ड समेत सिनेमा, संगीत और साहित्य की कई हस्तियों के निवास को काफी पहले म्यूजियम में बदला जा चुका है, लेकिन भारत में यह परम्परा विकसित नहीं हुई है। किशोर कुमार के देहांत के बाद मध्य प्रदेश सरकार ने खंडवा में उनके पुश्तैनी मकान ‘गांगुली हाउस’ के संरक्षण का आश्वासन दिया था। वक्त गुजरता गया। कुछ नहीं हुआ। आखिरकार दो साल पहले किशोर कुमार के परिजनों ने यह मकान एक बिल्डर को 14 करोड़ रुपए में बेच दिया।
कला से जुड़ी नामी हस्तियों के मकान और सामान को दौलत के तराजू में नहीं तौला जा सकता। ये अनमोल हैं। अफसोस की बात है कि हमारे देश में दिवंगत कलाकारों की यादों को सहेजने के संस्कारों का नितांत अभाव है। चढ़ते सूरज को सलाम करने और ढलते को उसके हाल पर छोड़ देने की परिपाटी रही है। एक दौर के सुपर सितारे राजेश खन्ना के बंगले ‘आशीर्वाद’ को उनके परिजन 95 करोड़ रुपए में बेच चुके हैं, जबकि राजेश खन्ना चाहते थे कि उनके बाद इसे म्यू्जियम में बदल दिया जाए। इस बंगले से कई कहानियां वाबस्ता थीं। पचास के दशक में जब इसे बनाया गया तो काफी समय तक यह खाली पड़ा रहा। लोग इसे ‘भूत बंगला’ कहने लगे थे। संघर्ष के दिनों में राजेन्द्र कुमार ने इसे 60 हजार रुपए में खरीदा और अपनी बेटी के नाम पर इसका नाम रखा ‘डिम्पल’। राजेन्द्र कुमार से इसे राजेश खन्ना ने खरीदा। इसके बाद डिम्पल कपाडिया उनकी जिंदगी में आईं। राजेश खन्ना का कॅरियर रॉकेट की रफ्तार से ऊपर जाने और उल्का पिंड की तरह ध्वस्त होने का ‘आशीर्वाद’ गवाह था।
संजीव कुमार मूलत: सूरत (गुजरात) के थे। वहां के नगर निगम ने उनके नाम से करीब सौ करोड़ रुपए की लागत वाला शानदार ऑडिटोरियम बनवाया है, जहां उनकी ट्रॉफियां और दूसरी चीजें रखी गई हैं। सूरत और संजीव कुमार के प्रशंसक यह सौगात पाकर धन्य हो गए। जयपुर में गीतकार हसरत जयपुरी की पुश्तैनी हवेली काफी समय से उपेक्षित पड़ी है। इसके संरक्षण के कदम उठाकर जयपुर को भी धन्य किया जा सकता है। फिलहाल हवेली की हालत देखकर हसरत जयपुरी का एक गीत याद आता है- ‘अपनी नजर में आजकल दिन भी अंधेरी रात है/ साया ही अपने साथ था, साया ही अपने साथ है/ जाने कहां गए वो दिन, कहते थे तेरी राह में/ नजरों को हम बिछाएंगे।’